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________________ जैनसाहित्यके प्रचारकी श्रावश्यकता [ लेखक - श्री सुरेन्द्र ] भारतकी अन्य जातियाँ अपने उत्थान के लिए सतत प्रयत्न कर रही हैं । धर्मप्रचारके हेतु न जाने कितने प्रयत्न किए जा रहे हैं। उनके अपने दल स्थापित हो रहे हैं । नवयुवकोंमें जीवन-प्रदान करनेके लिए धर्मप्रेम और देश-प्रेम भावांकी कूट-कूट कर भरा जा रहा है। उनकी संख्या में भी यथेष्ट अभिवृद्धि हो रही है। पर जैन जानिक युवक और वृद्धगण अपने उसी साचमें ढले हुए हैं। उनमें वह जोश नई है जो अन्य जातियांक जनममूह की नमन विद्यमान है। दुनिया उन्नति के मार्ग पर चल पड़ी है, पर हमारी जैन जाति अभी अपने घर भी नहीं निकली है। कुछ युवकगण उस पथ पर आना चाहते हैं, अपनी जाति को धवलित करना चाहते हैं, पर उनके पास ऐसे साधन नहीं है। वे समाजके अनुचित बन्धन में जकड़े हुए हैं। समाज के गतिशील मनुष्य इन युवकों के लघु अंश जोश को एक खेल समझते हैं और उनको निठल्ला सम्बोधित करते है । किसी भी प्रकार की प्रगति चाहे वह सामाजिक हो या सामयिक समाजके इन कर्णधारी द्वारा ठुकरा दी जाती है। युवकगण नात्मा हो जाते हैं और उनका मन गिर जाता है। किसी भी जातिका अभ्युत्थान नवयुवकोपर निर्भर है। वे सब कुछ कर सकते हैं। सब कुछ करनेके लिए उनमें काम करनेकी लगन और आशाका संचार होना चाहिए, जिसके लिए एक योग्य नेताकी आवश्यकता है. जो समय समय पर उनकी उठती हुई निराशाको आशामें परिवर्तित कर सके. जो उन नवयुवक का अपना कर्णधार बन सके, एक मित्र बन सके और मित्रके रूपमें एक महायक भी हो मके । साथ ही शरीरबल, बुद्धिबल और श्रात्मबल की भी परम आवश्यकता है। जब तक उपयुक्त बातोंका समा वेश हरएक नवयुवक में यथेष्ट मात्रा में न होगा, तब तक वह जात्युत्थान के कार्य में सफलीभूत नहीं हो सकता । अपने बुद्धिबलमे ही वह अपनी जातिके मुखको उज्ज्वल कर सकेगा। इस बुद्धिबलको प्राप्त करनेके लिए प्रथम ही शरीरबल और ग्रात्मबल की परम श्रावश्यकता है। हरएक मानवको धर्मका वास्तविक अधिकारी होनेके लिए बुद्धिकी शरण लेनी पड़ती है । धर्मकी शिक्षा ही, जो उसे अन्तर्जगत में प्रविष्ट करा सके और उच्च अध्यात्मवाद के पथपर आरू करा सके, उसकी आदर्श कर्णधार बनेगी। उसका धर्मका अध्ययन तत्त्वांपर श्राश्रित हो, न कि ऊल-जलूल बाह्य विषयों पर । श्राजका ज़माना शान्तिकी कामना करना है । उसे आज ऐसे वास्तविक धर्मकी आवश्यकता है जो अखिल विश्वको एक प्रेमसूत्रमें बाँध सके । प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें नृत्य करती हुई शान्तिको शान्त कर सके । जब तक नवयुवक इन सब बातो में सुसम्पन्न नहीं हो जाता, तब तक वह एक 'जैन नवयुवक' कहलानेका वास्तविक अधि कारी नही है । धर्मकी और जितनी ही उसकी प्रवृत्ति होगी, उतना ही वह जातिका मुख उज्ज्वल कर मकता है । धर्म तथा साहित्यका पारदर्शी एक नवयुवक ही लुम प्राय जैन माहित्यकी खोज कर सकता है। जैनधर्मका वास्तविक अध्ययन करने वाला मनुष्य ही जैनधर्मके उच्चतम तत्त्व का प्रकाश अन्य जाति के लोगोके सामने रख सकता है, इतना ही नहीं उनके हृदयको जैनदर्शनके सिद्धान्तों और उसके साहित्यकी ओर आकृष्ट भी कर सकता है। हमारी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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