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________________ किरण ८ ] पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ ४७१ 'ऐतिहासिक जैनकायसंग्रह के पृ० १४० में प्रकाशित मानकीर्तिसूरि विद्यमाने पं० चउथ शिष्य वीरान 'जइतपदलि' से स्पष्ट हैं । लिखितं स्ववाचनाय शृंगारदर्पण काव्यप्र० ६०० । श्री । उपाध्याय पद्मसुन्दरजीके ग्रंथभिन्नाक्षर प्रशस्ति हमारे अन्वेषणसं उपाध्याय पद्मसुन्दरजीका शृंगारदर्पण" नामक ग्रंथ मिला है, उससे सम्राट अकबर के साथ आपका घनिष्ट सम्बन्ध भलीभांति प्रमाणित होता है । यह ग्रंथ सम्राट अकबर के लिये ही बनाया गया था। अतः इस का नाम "अकबर शाहि शृङ्गारदर्पण' रखा गया है। साहित्य संसार में अद्यावधि इस ग्रंथका कोई पता नहीं था । सर्वप्रथम हमें इस ग्रंथकी अपने हस्तलिखित अपूर्ण ग्रंथोंमें एक प्रति मिली। फिर पं० दशरथ जी M. A. सं जात हुआ कि इसकी एक पूर्ण प्रति बीकानेर- स्टेट लाइम रोमें भी है। अतः स्टेट-लायन रीकं समग्रकाव्यग्रंथों को दो दिन तक टटोलने पर सबसे अनके बंडल में उसकी प्रति प्राप्त हुई। नीचे इन दोनों प्रतियों के परिचय के साथ ग्रन्थका परिचय दिया जा रहा है - १ अकबरशाहि शृंगारदर्पण --स ग्रंथमें चार उल्लास हैं, जिनमें क्रमशः ६८, ७६, ८६ और १८ पद्य हैं, श्रादित इस प्रकार है: आदि - यद्भासा सकलं विभाति दुर्लक्षाम् श्वगिदशा । यस्मिन्नोनमिदं हितं तु मणिवश्यत्यं सदा शाश्वतं । यत्परितममः स्थितं च रहयानित्याद्वयं तत्परम् । ज्योतिः साहिशिरोमण अकबर त्वाम् सर्वा देवा वतात् X X X X अंत्यः - अनेन पदचातुरी नियतनायिकालक्षणा । स्फुरनवर सोल्लास व (वि !) णिमप्रबंधन तु । अनंगरससंगप्रथितमानमुद्रावतीं । प्रसादयतु भामिनीमकबरं स्वरोहिर्निशा ||१७|| यति काव्यरचनासु रुचिर्विदग्धानानाray रसिकत्व - कुतूहलं च । तत्पद्मसुन्दर कविप्रथितं सुग्म्यं, श्रृंगार दर्पणमुपाद्धमदुष्ट चिन्ना ॥ ९८ ॥ इति सकलकलापारीण रमिकसाम्राज्यधुरी‍ श्री अकबर साहिशृंगार दर्पणे चतुथंउलामो । यादृशं इत्यादि । ले० सं० १६२६ वर्षे आषाढमासं कृष्णपक्षे अष्टम्यां तिथौ भौमवासरे पातिसाह श्री अकबर राज्यं । आगरामध्ये । भ० श्रीचंद्र कीर्तिसूरि पट्टे भ० श्री श्री श्री चतुःशृंगनिपादश्च द्विशीर्षा सप्तर्षयान । त्रिधावद्धो महान् देवी, वृषभोगैरबीति ||१|| मान्यो वा भुभुजोशजघराट् तद्वत हुमायूं नृप । ऽत्यर्थ प्रीतमनः सुमान्य ककोदानन्दरायाऽमि । तद्वत्साहिशिरोमणेर कबर क्ष्मापालचूडामणे । मान्यः पंडित पद्मसुन्दर इह । ऽभूत् पंडिताजित ॥ २ ॥ चंद्रप्रभः श्रीप्रभुचंद्रकीर्त्तिसूरीश्वर चंद्रकलाब्धिचंद्र | चंद्रावल श्लोकभरः सुखषचंद्र के तारावधि मातनोतु ॥ नागपुरीय तपागणाराज: श्रीचंद्रकीर्त्तिसूरीश्वरा । तचिष्य हषकार्तिसूरिः समलेखय (स्यार्थे) । ४ कल्याणविपुलं भूयात ए विपरीत रते स्वशीकृता । दरहासातिमनां रमा नानाविधवाघवसंगतां स्मिर युद्धे विजिताप्य चापलं ॥ १ ॥ प्रतिपरिचय:-- A बीकानेर स्टेट लायब्ररी- १६ पत्रकी प्रति है। प्रत्येक पृष्ठमें पंक्रिये १२ से १४ और प्रति पंक्रि अक्षर ४५ से ४६ तक है। प्रति सं १६२६ अर्थात् रचनाकालके करीब की लिखी हुई है 1 1) हमारे संग्रह - पत्र २ से १३ तककी अपूर्ण प्रति | प्रथम सर्गकी २२ वीं गाथाएं प्रारंभ होकर चोथे सर्गकी २० गाथा तक सम्बन्ध है। प्रति १३ वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की लिखित प्रतीत होती है । २ सुन्दरप्रकाश शब्दार्णव- इस प्रन्थ में २ तरंग हैं, जिनके समग्र पर्योकी संख्या २६६८ (ग्रंथाग्रंथ ३१७८) हैं 1 यह एक कोच ग्रंथ है। आदि - यच्चांत हिगत्मशक्तिविलसमिचद्रूपमुद्रांकितं । स्यादित्थं तदित्यणेह विषयाः ज्ञानप्रकाशांदितं शब्दभ्रान्तितमः प्रकांडवदनध्नंन्दु कोटिभ्रमं । बंद निवृतिमार्गदर्शनपरं सारस्वतं तन्मठं ||१|| X X X X अंत्यः - आनंदोदयपर्व्वतैकन रेखा रानंदमेरोगुगे । शिष्य पंडितमौलिमंडनमणिः श्रीपद्म मेरुर्गुरुः । [ शेषांश पृष्ठ ४७६ पर पढ़िये ]
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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