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________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तर लेखकी निःसारता [ लेखक-पं० रामप्रमाद जैन शास्त्री ] स phot جججج [गत किरणसं पाग] (२) अर्हत्प्रवचन और तत्वार्थाधिगम द्वादी वा श्रयमाणं पदं प्रत्येकं संबध्यते' इस नियम ... के अनुमार द्वंद्वान्तर्गत विशंपण प्रत्येक विधेय करणम सयुक्तिक सम्मतिक आक्षेपका उत्तर (विशेष्य ) के माथ लग सकता है, तो इसका उत्तर दत हए प्रोफमर जगदाशचंद्रन मरं व्याकरण यह है कि यह बात असंदिग्ध अवस्था की है, जिस विषयक पाण्डित्यपर हमला करनकी काशिश की है जगह मंदिग्धनारूप विवादम्य विषय हो वहाँ यह और विना किी युक्ति-प्रयुक्तिक हेतुकं ही मर ज्ञान उपर्युक्त व्याकरणका नियम लागू नहीं होना । यहांका का झटम व्याकरगा शून्यनाकी उपाधि द डाली है । विषय मंदिग्ध हानक कारण विवादस्थ है; क्योंकि मालूम नहीं व्याकग्गाक किम अजीब कायदे को लेकर मिसनगणीकी टीका अध्याय-परिममाप्ति-वाक्यो उत्तरलेग्वकन व्याकरण शून्यना। यह सार्टिफिकट में सिर्फ मतम अध्यायको छोड़कर और किसी भी द डालने का साहम किया है ! मुझे ता इमम उत्तर अध्यायके अन्तम — उमास्वातिवाचकापज्ञसूत्रभाष्य' लग्बककै चित्त की प्रायः क्षुब्ध प्रकृति ही काम करती हुई नजर आरही है। ऐसा वाक्य नहीं है। एमी हालनमें कहा जा सकता मैन लिग्बा था कि-' उमाम्बातिनाच कापज्ञ है.. यह वाक्य खाम मिद्धमनगगीका न होकर सूत्रमाप्य' यह पद प्रथमाका द्विवचन है । चाक किमा दृमरंक कृनि हो जो नत्त्वार्थसूत्र का तो उमा. • भाग्य' शब्द नित्य हा नपंसकलिग है, इमालय ग्वानि ।। मानना हो परंतु भाप्यका उमास्वातिका • भाग्य' पद प्रथमाका द्विवचन है, इस कथनम नहीं मानना हो । प्रनिलंग्वक भी मंधिवाक्योंक व्याकरण की ना काई गलती नहीं है। अब रहा इम लिम्बनम बहुत कुछ निरंकुश पाये जाते हैं, इमांस पदको प्रथमाका द्विवचन लिग्वन का मंग प्राशय, वह ग्रंथी मत्र प्रतियां संधिवाक्य । एक ही रूप यही है कि उक्त द्वंद्वममामक अन्तर्गन मुत्र और में दंग्यनेम नहीं आते । अथवा उम कृतिको यदि भाष्य दाना ही उमाम्बातिकृन नहीं हैं किन्तु कंवल मिद्धमनगी ही मान लिया जाय तो मिद्वमन तत्त्वार्थसूत्र ही उमाम्बातिकृत है । यदि भाग्य भी गणीकं हृदयकी मंदिग्धता उमके निर्माण अवश्य उमाम्बातिकृन हाता ता सिद्ध सनगगि · उमाम्बाति- संभावन हो सकती है। यदि सिद्ध मनगणी हम वाचकांपज्ञ' इम विशेषण की भाग्यके माथ भी पिगमे ( मूत्र और भाष्यके एककर्तृत्व विषयमें ) वाक्याचना कर देते, परंतु उन्होंने ऐसी रचना नहीं मर्वदा अथवा मर्वथा अमंदिग्ध रहने तो वे 'उमा. की । इसके लिये यदि ऐसा कहा जाय कि 'द्वंद्वान्ने म्वानिवाचकांपज्ञे सूत्रभाज्य' ऐमा स्पष्ट लिखने अथवा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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