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________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ सूत्र और भाष्य दानोंके साथ जुदा जुदा उमास्वानि- दूमग कारगण यह मालूम होता है कि भाष्यकाग्ने, वाचकांपज्ञ जैसा विशेषण लगा देते; परंतु ऐमा कुछ अपने भाग्यमें, अनेक स्थलोंपर ऐसे वाक्य लिखे हैं भी किया नहीं अतः वह पद मप्तमीका एकवचन नहीं जिन ने स्पष्ट मालूम होता है कि भाग्यवसि सूत्रहै और न उमम एककर्तृता ही मिद्ध हानी है। कर्ना जुद है । यथा: अब देग्वना यह है कि मिद्धसनगणी इस विषय 'आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह' (पृ० ११७) । म मंदिग्ध क्योंकर हैं । मिद्धमनकी टीकाको यदि "आद्यामति सूत्रक्रमप्रामाण्यादौदाम्किमाह" गहराई माथ अवलोकन किया जाना है तो उमस (पृ० २०७)। यह पता चलता है कि उन्होंने हरिभद्रसूरि जैसे “बन्धे पुरस्ताद् वक्ष्यति " (पृ० २१०) । अपन कुछ पूर्ववर्ती विद्वानांके यथनपरमं यह ग़लत “वक्ष्यति च स्थितौ 'नारकाणां च द्वितीयादिषु' धारणा ता करली कि भाष्य और तत्त्वार्थसूत्रक कर्ता (पृ० २२८) एक ही व्यक्ति हैं परन्तु वैमी धारणाका सुदृढ रखने “मुत्तरस्यात सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह" के लिये कोई भी पुष्ट प्रमाण उपलब्ध न होनम व (द्वि० ख० पृ० ३९) उम विषयमें बगबर शंकाशील अथवा मंदिग्ध रहे " सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह " हैं-भले ही श्राम्नायवश व दानोंकी एकताका कुछ (द्वि० ख० पृ० २४९) प्रतिपादन भी करते रहे हों। उनकी इस स्थितिका इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए प्रथमपुरुष एकवचनाप्रधान कारण एक तो यह जान पड़ता है कि भाज्यकं त्मक क्रियाकं प्रयोग साफ सूचित करते हैं कि भाष्यसाथमें जो ३१ संबंध-कारिकाएँ हैं उनमें- २२ वीं कार, जो अपना उल्लेख उत्तमपुरुपकं बहुवचनमें करते और ३१ वी कारिकाओंमे- वक्ष्यामि ' ( वक्ष्यामि पाए हैं, अपनेस सूत्रकारको जुदा प्रगट कर रहे हैं। शिष्यहितमिममित्यादि ) 'प्रवक्ष्यामि ' ( माक्षमागे मालूम होता है इन दोनों कारणासं सिद्धसनगणी प्रवक्ष्यामि ) जैस एकवचनान्त प्रयोग पाये जाते हैं; अपनी धारणाम संदिग्ध हुए हैं, परन्तु आम्नाय जबकि भाष्यमें सब जगह 'उपदक्ष्यामः' ('विस्त- अथवा हरिभद्रक कथनकी रक्षाके लिये उन्हें निर्हेतुक रंणापदेक्ष्यामः' सि० टी० पृ० २५, ४१) और वाक्य-चना करके यह कहना पड़ा है कि सूत्रकारम 'वक्ष्यामः' ('पुरस्तादवक्ष्यामः' 'मनःपर्ययज्ञानं भाष्यकार अविभक्त है। ऐस कथनक स्थल मिद्धसन वक्ष्यामः' सि० टी० पृ० ७६, १०० ) जैसे बहुवचना. गणीको टीकामें दो जगह नज़र आरहे हैं। एक स्थल न्त क्रिया पद ही नजर आते हैं और ऐस स्थल तो प्रथम अध्यायकं ११ वें सूत्रके भाष्यमें प्रयुक्त हुई भाष्यमें १३ हैं। इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि 'शास्ति' क्रिया से सम्बन्ध रखता है । इस क्रिया सम्बंध कारिकाओंके और भाष्य कर्ता जुदे जुदे हैं। का स्पष्ट आशय वहां यह है कि सूत्रकार शिक्षा सम्बंध कारिकाओं के कर्ता एक व्यक्ति शायद उमा- ( उपदेश ) देता है । इसी · शामिन ' क्रिया संदिग्ध स्वाति हैं और भाष्य के कर्ता कोई दूसरे-संभवतः होकर सिद्धसेनगणी आम्नायक-थनकी रक्षार्थ अपनी अनेक हैं। टीकामें लिखते हैं
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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