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________________ १६० अनेकान्त (१) मिध्यात्वगुणस्थान वाले, (२) मासादन गुणस्थान वाले, (३) मिश्र गुणस्थान वाले, (४) सम्यक्त्वगुण स्थान वालें | ये ऊपर ऊपर एक दूसरेमे बहुत शक्ति वाले हैं, परन्तु यं ऊपर ऊपर एक दूसरे से बहुत कम संख्या वाले हैं I [ बर्ष ४ ये मिध्याधारणा के आधारपर अपनी दुनिया बनाने वाले हैं। ये अपनेको अंधकार में डालकर आगे आगे चलने वाले हैं. ये अपनेको मोहमें गाढ़ कर आशा लग्यानवाले हैं, ये सब ही मिध्यालोक में बसने वाले हैं, मिथ्यालाक में देखने वाले हैं, मिथ्या लोक में लग्खाने वाले हैं, ये सब मिथ्यात्वगुणस्थानीय हैं । इनकी दशा अत्यन्त दयनीय है । ये मिध्यालोकके वासी भी सब एक समान नहीं हैं, इनमें अधिकांश तो कर्मफल चेतना वाले हैं, और थोड़ेसे कर्मचेतना वाले हैं। (क) कर्मफल चेतनावाले जीव मिथ्यात्व गुणस्थान वाले इनमेंसे अधिकांश तो, ऊपर से सचेत दीखते हुए भी भीतरसे जड़सम अचेत हैं, ये ऊपरसे श्वासउच्छवास लेने भी, खाते पीते हुए हुए भी, चलते फिरते हुए भी, भीतरसे निर्जीव-सम बने हुए हैं। ये भीतर में होने वाली तड़पन और गुदगुदाहटसे, भीतर में जगने वाली चेतना और अनुभूनियोंसे भीतर में चुभनेवाली भीतियों और शंकाओं, भीतर में उठने वाली प्रेरगाओं और उद्वेजनाओं, भीतर में बहने वाली प्रवृ तियों और स्मृतियों, बिल्कुल बेखबर हैं। इन्हें पता नहीं कि यह क्या है, क्यों हैं, कैसे हैं। यह भीतरी लोकको भुलाकर बाहिरी लोक में धर्म हुए हैं । अन्नरात्माको खोकर परके बन हुए हैं। । यह अपनेको न देखकर बाहिरको देख रहे हैं. अपनेको न टटोलकर बाहिरको टटोल रहे हैं, अपने को न पकड़कर बाहिरको पकड़ रहे हैं। इनकी सारी रुचि, मार्गे आसक्ति बाहिरमे फंसी हुई हैं, इनकी सारी मति, सारी बुद्धि बाहिरमें लगी हुई है, इनकी सारी शक्ति, मारी स्फूर्ति बाहिग्में फैली हुई है, इनकी सारी कृति, सारी सृष्टि बाहिर में होरही है, इनकी सारी दुनिया बाहिर में बसी हुई हैं, इनका माग विकास बाहिरकी और है। ये अनन्तकालमे बाहिरका अनुसरण करते करते, अनन्तकालसे बाहिरका अनुबन्ध करते करते, अनंत कालसे बाहिरमें रहते रहते बाहिरके ही हो गये हैं, बहिरात्मा होगये हैं। इनका अन्तः लोक अनन्तानुबन्धी मिध्यावसे भरा है, अनंतानुबंधी अंधकार से भरा है, अनंतानुबंधी मोहसे भरा है । ये समस्त एकेन्द्रिय जीव, समम्न वनस्पति जीव, समस्त विकलेन्द्रिय जीव, समस्त कीड़े-मकौड़े, मच्छरमक्खी, मीन-मकर, पशु-पक्षी कर्मफल चेतना (Instinctive subconcious life ) वाल हैं । ये बड़े ही दीन, हीन और निर्बल हैं। ये अपनी मिध्या धारणाकी इस बाहिरी दुनिया इतने दुःखी हैं, इम बाहरी जीवनमे इतने अस्वस्थ हैं कि इनकी सारी दुनिया दुःख ही दुःख है । इनका सारा जीवन दुःख ही 'दुःख है। ये इस दुःखसे इतने डरे हुए हैं, इस डरसे इतने सहमे हुए है कि इन्हें इस दुःख और दुःखभरी दुनियाकी और, इस भय और भयभ दुनियाकी और इस शंका और शंकाभरी दुनिया की और लखाने का भी साहस पर्याप्त नहीं। ये जहां अन्य मिध्यात्वगुणस्थानियोंकी भांति भीतरी दुनिया से विमुख हैं, वहां ये डरके मारे बाहिरी दुनिया से भी विमुग्व हैं, ये बाहिग्से इतने भयभीत हैं से इंद्रियां मूंदकर रह गये हैं, बाहिरसे ज्ञान रोककर रह गये हैं, बाहिरसे अचेत होकर रह गये हैं । इस लिये इनकी समस्त दर्शन-ज्ञान-शक्ति, समस्त स्मरण
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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