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[ वर्ष ४
कहाँका न्याय है ? असलियत में देखा जाय तो 'सर्वार्थसिद्धि' यह नाम ही अपनेको भाष्य सूचित करता है; क्योंकि इस ग्रन्थ में सूत्राथ न्याययुक्त समालोचना और अपने मतानुसार तात्पर्य बताना आदि भाष्य में पाई जाने वाली सर्वश्रर्थ की सिद्धि मौजूद है । अतः सर्वार्थसिद्धि नामको भाष्यका पर्यायवाची नाम समझना चाहिये ।
सर्वार्थसिद्धिकी लेखन शैलीको जां पातंजलभाष्य सरीखी बतलाया गया था उसका तात्पर्य इतना ही है कि 'भाष्य' नामसे लोक में जिस पातं जलभाष्य की प्रसिद्धि है उसकी मी लेखनशैली तथा भाष्यके लक्षणको लिये हुए होने से सर्वार्थसिद्धि भी भाग्य ही है । ऐसी पद्धति जिन टीका-प्रन्थों में पाई जाय उनको भाष्य कहने में क्या आपत्ति हो सकती है, उसे प्रोफेसर साहब ही समझ सकते हैं !!
वास्तव में देखा जाय तो अकलंकदेवने जिन दो प्रकरणों (०५ सूत्र १, ४) में प्रकारान्तरीय वाक्यरचना से षडद्रव्यत्व के जिस ध्येय की सिद्धि की है वह ही बात वहां पर 'वृत्ति' और 'भाग्य' की एकध्येयता का लिये है । अतः अकलङ्क की कृति से भी यह बात स्पष्ट सिद्ध है कि 'भाष्य' और 'वृति' एक पर्यायवाचक हैं। इसलिये राजवार्तिक में 'कालस्यांपसंख्यानं ' इत्यादि वार्तिकगत-षद्रव्यत्वके विषय की शंकाका जो समाधान है वह सर्वार्थसिद्धि को लक्ष्य करके संभवित है; क्योंकि उसमें द्रव्यों की छह संख्या की सूचना के लिये 'षट्' शब्द बहुत बार आया है । । वहाँ 'षड्द्रव्याणि' का तात्पर्य समाश्रित उस ' षड् द्रव्याणि' पदसे नहीं है किन्तु द्रव्योंकी छह संख्या-सूचक 'षट्' शब्द है । अतः राजवार्तिकक उस प्रकरण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिका भाग्य
अनेकान्त
भाष्य नहीं कहा जाता " बिल्कुल ही श्रविचारित जान पड़ता है, क्योंकि वह उनके द्वारा उद्धृत हेमचन्द्राचार्य के भाष्य-लक्षण तथा फुट नोटमें दिये गये तिलक महोदय के उद्धरण से स्वतः ही खंडित हो जाता है। इसीको कहते हैं अपने शस्त्रसे अपना घात ! हेमचन्द्रने भाष्य का लक्षण जो 'सूत्रांक्तार्थप्रपंचक' बनलाया है उसका अर्थ क्या सूत्रपर आये हुए दोषो का खण्डन नहीं होता ? यदि होता है ता फिर उसका अर्थ स्वमत (सूत्रमत ) - स्थापन और परमत (शंकाकृतमत) का खण्डनके सिवाय और क्या होता है उसे प्रा० साहब ही जानें ! वस्तुतः टीकाओं में तो और और विषय सम्बन्धी प्रपंच रहते हैं परन्तु भाष्य में उन प्रपंचों के साथ यह स्वमत-स्थापन और परमत- खडन सम्बन्धा प्रपंच विशेष रहता है। इससे फुटनोट वाले उद्धरण में श्री बालगंगाधरजी तिलक स्पष्टरूपसे कहते हैं कि - " भाष्यकार इतनी ही बानों पर (सूत्रका सरल अन्वय और सुगम अर्थ करने पर) संतुष्ट नहीं रहता, वह उस प्रन्थ की न्याययुक्त समालोचना करता है और अपन मतानुसार उसका तात्पर्य है और उसीके अनुसार वह यह भी बतलाता है कि ग्रन्थका अर्थ कैसे लगाना चाहिये ।” इन तिलक वाक्यों में 'न्याययुक्त समालोचना' और 'अपने मतानुसार तात्पर्य बताता है' ये शब्द सिवाय स्वमत-स्थापन और परमत- निराकरण के अन्य क्या बात सूचित करते हैं ? उसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सर्वार्थसिद्धि मे ये सभी बातें श्वेताम्बर भाष्य की अपेक्षा विस्तारसं पाई जाती हैं और इस तरह से सर्वार्थसिद्धि भाष्यकं सच्चे लक्षणों से युक्त है, फिर भी उसे भाष्य न कहना यह
बताता