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'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तर-लेखकी निःसारता
( लेखक-पं० रामप्रसाद जैन शास्त्री )
[गत किरण नं.८ से आगे]
४ भाष्य
एक ही बार आया है (दूसरी जगह 'षडपिद्रव्याणि' (क) मयुक्तिक सम्मतिमे इस 'भाष्य'-प्रकरणको ।
. है)। ऐमी हालनमें मसिद्धि को भाष्य बनाना भ्रम लकर मैंन, पं० जुगलकिशोरजीके मतका समर्थन
है। वास्तवमें सर्वामिद्धि वृत्ति है और राजवार्तिक करते हुए, प्रथम पैरेप्राफमें यह बतलाया था कि 'गज
भाष्य है । जैसे गजवानिकको वृनि नहीं कहा जासकता वार्तिककं “यद ये बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्त'
,, वैस, ही मर्वार्थसिद्धिको भाष्य नहीं कहाजा सकता।" इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'भाष्य' शब्दका वाच्य यदि इसके साथमें प्रो० मा० प्रमाणरूपसे 'वृत्ति' म्वयं गजवार्तिक भाष्यको न लेकर किमी प्राचीन और 'भाष्य' का हेमचन्द्राचार्य-कुन लक्षण भी भाग्यको ही लिया जाय तो वह 'मर्वार्थसिद्धि' भी हो देते हैं और निलकजीके गीतारहस्यस 'टीका' मकना है, जिसके आधार पर राजवानिक और उसके और 'भाष्य' के भेद-वथनको भी उद्धृत करते हैं। भाष्यकी रचना हुई है और जिसमे 'षड़ द्रव्याणि' के इस आपत्ति सम्बन्धमें मैं मिर्फ इतना ही कहना उल्लेग्व भी कई स्थानोंपर दिग्बाई दे रहे हैं। क्योंकि चाहना हूँ कि यदि वृत्तिकं लिये 'भाष्य' का और सर्वासिद्धि म्वमत-स्थापन और परमन-निगकरणरूप भाष्यकं लिय ‘वृत्ति'शब्दका प्रयोग नहीं होता है,ताफिर भाष्यके अर्थका लिये हुए है, उसकी लखनशैली भी श्वेताम्बग्भाप्यकं लिये भी कहीं 'वृत्ति' शब्द का प्रयोग पातंजल-भाष्य-मरीखी है और 'वृत्ति' एवं 'भाष्य' नहीं बन सकता, और इमलिए गजवार्तिक के "वृत्ती दानों एक अर्थक वाचक भी होते हैं ।' मेरे इस कथनपर पंचत्ववचनादिति” इम वार्नि+में आये हुए 'वृत्ति' आपत्ति करते हुए प्रा० जगदीशचन्द्रजी लिग्बने हैं- शब्दका वाच्य श्वनाम्बग्भाष्य किसी तरह भी नहीं ___ "स्वयं पूज्यपादने सर्वार्थमिद्धिको 'नत्वार्थवृत्ति' हा मकना । प्रो० मा० का एक जगह (गजवातिकमें) नामस सूचित किया है। यदि मार्थसिद्धि भाष्य तो अपने मतलबकं लिय 'वृत्त' को 'भाग्य' बतलाना हाता ता उस व 'भाष्य' लिम्वते । स्वमत-स्थापन और और दूमग जगह (मर्वामिद्धिम) 'वृत्ति' शब्दके परमत-निराकरणमात्रसे कोई प्राथ भाष्य नहीं कहा प्रयोगमात्रम उमके 'भाष्य' हानेस इन्कार करना, जा सकता । तथा अन्य प्रन्थों की शैली भी पातंजल बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है! यह तो वह बात भाष्य-सरीखी हो सकती है। परन्तु इसका यह अर्थ हुई कि 'चित भी मेरी और पट भी मंग,' जो नहीं कि उन सबको भाष्य' 'कहा जायगा।" विचार नथा न्याय-नीनिक विरुद्ध है।
"इसके अलावा यदि षडद्रव्याणि'इस पदका ही खास प्रो० साहबका यह लिखना कि "स्वमत-स्थापन आग्रह है, तो 'षड्व्याणि' पद सर्वार्थसिदिमें भी और परमत-निराकरण-मात्रम कार्ड (टीका) प्रन्थ