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________________ किरण १०] सयु० स०पर लिखे गये उत्सरलेखकी निःसारता दोनों लिये जा सकते हैं। श्वेताम्बर भाष्या वैसा बात आपके लग्यांक तृतीयसं मालूम पड़ी थी वही 'बहुकृत्व'-बहुन बार द्रव्यांकी छह ख्या सूचिन बात पीछे न आये हुए पं० जुगलकिशोरजीक लेग्बोंसे कनिका बात न हानेमे उस प्रकरणम श्वनाम्बर मालूम हुई थी। परन्तु लग्यांक नं०३ में जो बात भाष्यका प्रहण नहीं किया जा सकता। श्रत उक्त सम्मुख थी उसीका उत्तर देना अय ममय उचित था। श्रापत्ति निमूल है। यह निश्चय करके ही 'पंचत्व' के प्रकरणको न उठा (ख) इस भाष्य प्रकरण-मम्बन्धी 'सयुक्तिक कर केवल 'षट् द्रव्याणि' के प्रकरणपरसे ही पं० सम्मति' के दूमरं पैरंग्राफ मे मैंन, पं० जुगलकिशारजी जुगलकिशोरजीक मतकी पुष्टि की गई थी । वास्तव में के इस कथनका कि 'गजवार्तिक भाष्य मे आए हुए न्यायसंगत बात भी यही है कि जो ममक्ष हा उसीका 'बहुकृत्वः' शब्द का अर्थ 'बहुन बार' होना है उस उत्तर दिया जाय। जब ५० जुगलकिशारजी श्वे० शब्दार्थको लेकर 'पद्रव्याणि' ऐमा पाठ श्व० भाष्य भाध्यमे 'षड्द्रव्याणि' के विधानका निषेध कर रहे में बहुन बारको छोड़कर एक बार तो बतलाना चाहिये' हैं ता उमस यह नतीजा स्वनः ही निकल पाता है, उल्लम्ब करते हुए, यह बतलाया था कि बहुत कोशिश कि भाष्यके मनस पाँच द्रव्य हैं। क्या प्रकरण करनेपर भी प्रा० सा० वैमा नहीं कर मके-उन्हान सम्बन्धका लेकर 'षट्' के निषेध परस 'पंच'का 'सर्व पट्त्वं पड़ द्रव्यावगंधात्' इम भाष्य-वाक्यस विधान बुद्धिका अगम्य विषय है ? यदि वह अगम्य तथा प्रशमति-गाथाकी ‘जीवाजीबी द्रव्यामनि षड्- नहीं है तो फिर कहना होगा कि 'सयुक्तिक सम्मति' विधं भवतीति' इस छायापरसं काशिश ना बहुन की में जा लिम्बा गया है वह प्रकरण-संबद्ध हानेस पूर्व है परन्तु उमाप केवल 'षट्त्वं' 'पविध' ये वाक्य ही लखके पढ़न न पढ़ने के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं मिद्ध होसके हैं, 'पड् द्रव्याणि' यह वाक्य श्व०भाष्य- रखता। फिर नहीं मालूम पूर्व लेखोंको न पढ़नेका काग्ने स्पष्टरूपस कहाँ उल्लेग्विन किया है यह मिद्ध एमा कौनमा परिणाम है जो प्रा० सा० की दृष्टि में नहीं किया जा मका, इत्यादि । मरे इस कथनपर खटक रहा है! आपत्ति करते हुए प्रा० साहबने जो कुछ लिग्वा है राजवानिक-पंचम अध्यायकं पहल सूत्रकी ३६वीं उसकी निःसारताका नीचे व्यक्त किया जाता है:- वार्तिक भाष्यम 'पट् द्रव्यों' का कथन पाया है, उसे प्रथम ही आपने लिखा है कि-"यह शंका पहले मैंने सर्वार्थसिद्धि और गजवानिकका बतलाया है। लेग्वोंको न पढ़नका परिणाम है।" इसका जवाब (भाष्यका नही बतलाया है), उसका तात्पर्य सिर्फ सिर्फ इतना ही है कि जहां तक आपका लेखांक इतना ही है कि गजवार्तिक और मर्वार्थसिद्धि में द्रव्यों नं० ३ मेरे पास आया और उसके ऊपर 'सयुक्तिक के 'पट्त्व' (छहपन) की सिद्धिका विधायक 'षट्' सम्मति' लिखी जाकर मुद्रित होनको भेजी गई वहां तक शब्द बहुत बार पाया है। तो पं० जुगलकिशारजीके लेख मैंन नही पढ़े थे, पीछे सयुक्तिक सम्मति'मे जो यह लिखा गया है किजुगलकिशारजीके सब लेख मेरे पास आगय और "पट्त्वं" "पविध" ये वाक्य ही सिद्ध हो सकते हैं, उन्हें मैंने अच्छी तरह पढ़ लिया। मुझे तो जा किन्तु 'पद्रव्याणि' यह वाक्य उमास्वातिन तथा
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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