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जैनदर्शनका नयवाद
(ले० - म्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया)
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जैनदर्शन में तस्वके दो भेद माने गये हैं। १ उपेय, २ उपाय । उपेयतस्त्र के भी दो भेद हैं१ कार्यतत्व, २ ज्ञेयत्व । कारकोंकी विषयभूत वस्तु 'कार्यतत्व' कही जाती है और ज्ञानकी विषयभूत वस्तु 'ज्ञेयतस्व' कही जाती है। उपायतस्त्वके भी दो भेद हैं-१ ज्ञापक, २ कारक वस्तुप्रकाशक ज्ञानको 'ज्ञापक उपायतत्त्व' कहते हैं और कार्योत्पादक उद्योगदैवादिका ‘कारक उपायतन्त्र' कहते हैं, जिसे दार्शनिक भाषा में कारण या हेतु भी कहा जाता है ।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऊपर आपने ज्ञानको ज्ञापक कहा है, सो ज्ञान प्रमाण रूप ही है नय रूप नहीं । “स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं,' 39 " सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं” आदि वचनोंसे भी ज्ञानमें कंबल प्रमाणत्व ही सिद्ध होता है नयत्व नहीं; तब फिर नय ज्ञापक-प्रकाशक कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर - प्रमाण और नय ये दो भेद विषयभेदकी अपेक्षा किये गये हैं। वास्तव में नय प्रमाणरूप ही है, प्रमाणसे भिन्न नहीं है। जिस समय ज्ञान पदार्थों के सापेक्ष एकांश - एक धर्मको ग्रहण करता है उस समय वह 'नय' कहा जाता है और जब पूर्णरुपेण वस्तुका श्रग्वण्डपिण्डात्मक रूपमें ग्रहण करता है तब 'प्रमाण' कहा जाता है। छद्मस्थज्ञाता जब अपने आपको समझाने के जिये प्रवृत्त होता है तो उस समय उसका ज्ञान 'स्वार्थ श्रुतज्ञान' कहलाता है और जब दूसरोंको समझाने के लिये शब्दोच्चारण करता है उस समय उसका शब्दोचारण उपचारतः वचनात्मक 'परार्थ श्रुतज्ञान' कहा जाता है । श्रोताको उसके शब्दों से जो बोध होगा वह वास्तविक श्रुतज्ञान कहा जाता है और ज्ञान ही भेद नय है। आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धिमें उक्त प्रश्नका अच्छा समाधान किया है। आप लिखते हैं- श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों प्रकारका होता है, ज्ञानरूप स्वार्थश्रुतज्ञान है तथा वचनरूप परार्थ है। और भ्रतज्ञान
श्रुतज्ञान
ज्ञापत्रके भी दो भेद हैं-१ प्रमाण, २ नय । वस्तु-प्रकाशक होनेके कारण प्रमाण और नय दोनों द्दी ज्ञापकतस्त्र हैं | आचार्य उमाम्वामीने तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नय दोनों को पदार्थाधिगमोपायरूप कहा है २ । श्री ग्वामी समन्तभद्रने देवागम स्तोत्र में स्पष्ट कहा है कि केवली भगवानका ज्ञान एक साथ सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रकाशक होनेके कारण प्रमाणरूप है और छद्मस्थोंका क्रमिक ज्ञान प्रमाण और नय दोनों रूप हैं ' । तात्पर्य यह कि जैनदर्शन में प्रमाणके अलावा नयको भी प्रमेयका व्यवस्थापक एवं वस्तुप्रकाशक माना गया है।
१ आयत - ज्ञानकं कारकं चेति द्विविधं तत्र ज्ञापकं प्रकाशकमुपायतत्त्वं ज्ञानं, कारकं तूप यतस्त्रमुद्योगदेवादि । अष्टसहस्री टि० पृ० २५६ ।
२ " प्रमाणनयैरधिगमः” तस्वार्थसूत्र ।
३ तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्व भासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृनम् ॥१०१॥