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अनेकान्त
[वर्ष ४
के ही भेद नय हैं । इस प्रकार नयोंका प्रतज्ञानमें से उनका पृथक् निरूपण करना अत्यावश्यक है। अन्तर्भाव किया है।
संसारके समस्त व्यवहार नयों को लेकर ही होते हैं। विद्यानन्द म्वामीने भी श्लोकवार्तिकमें उक्त प्रश्न जैनदर्शनमें नयका वही स्थान है जो प्रमाणका का समाधान बड़े अच्छे ढंगसे कर दिया है। वे कहते है। नय और प्रमाण जैनदर्शनकी आत्मा हैं। यदि है कि जो लोग प्रमाण और अप्रमाणका विकल्प नयको न माना जाय तो जैनदर्शनकी आत्मा अपूर्ण करके नयोंका खण्डन करते हैं वह ठीक नहीं है । नय रहेगी । मैं तो दावेक साथ कह सकता हूँ कि नय ही न तो प्रमाण है और न अप्रमाण, किन्त प्रमाणक- विविध वादों एवं जटिलस जटिल प्रश्नोंकी गुत्थियों देश है ? जिस प्रकार समुद्रस लाया हुश्रा घड़ा भर के सुलझानेम समर्थ है। प्रमाण गंगा है-बोल पानी न तो ममुद्र है और न असमुद्र, किन्तु समुद्रक नहीं सकता है-और न विविध वादोंको सुलझा देश है " । मतलब यह कि नयके द्वाग पूर्ण वस्तुका सकता है, अतः जैनदर्शनकारों ने मत-मतान्तगेको ज्ञान नहीं होता, उसके एक अंशका ही ज्ञान होता है। पुचित मार्ग पर लानके लिये नयवादका नयका विषय न नो वम्त है और न अवस्त, किन्त वस्त आविष्कार करके बड़ी भारी कमीकी पूर्ति की का अंश है । जैम समुद्रकी एक बिन्दु न तो समुद्र ही है। वचन-प्रवृत्ति तथा लोक-व्यवहार नयाश्रित है न ममुद्रके वाहर है, किन्तु समुद्रका एक अंश है। ही है, प्रमाणाश्रित नहीं। अतः मानना होगा कि अगर एक बिन्दुको ही समद्र मान लिया जाय तो जिस दर्शनमे नयको स्थान नही मिला है वह दर्शन बाकीके बिन्दु, समुद्र के बाहर होजावेंगे अथवा प्रत्येक अध
। अधूरा ही है। कंवल प्रमाणसे' अनन्नधर्मात्मक
वस्तुका प्रातिस्विक रूपसे ज्ञान नहीं हो सकता है। बिन्दु एक एक समुद्र कहलाने लगेगा, इस प्रकार एक और न वह दर्शन अपने ऊपर आये आघानोंका ही समुद्रमें लाग्खों समुद्रोंका व्यवहार होने लगेगा। परिहार या प्रतिवाद कर सकता है और न अपने अतः यह बात निश्चित हो जाती है कि नय प्रमाणके को उत्कृष्ट ही सिद्ध कर सकता है। ही अंश हैं। फिर भी छद्मस्थज्ञाता, वक्ताओंकी दृष्टि यद्यपि न्याय, वैशेषिक श्रादि दर्शनाने उक्तविषय
का निर्णय करने के लिये शब्दप्रमाण-शाब्दबोध स्वी४ "श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ च । ज्ञानात्मकं स्वार्थ, वचनात्मकं परार्थ ॥ तद्विकल्पा नयाः।" "सकलादेशः
कृत किया है और उसके द्वारा तत्तद्धर्मविशिष्ट वस्तु प्रमाणाधीनः विकलादेशः नयाधीनः।" -सर्वार्थमिदिः के बोधकी व्यवस्था की है और शब्द-प्रमाणका सवि५ "नयः प्रमाणमेव स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात् इष्टप्रमाणवत् स्तार निरूपण किया है तथापि नय-साध्य कार्य शब्दविपर्ययो वा, ततो न प्रमाणनययोर्भेदोऽस्ति ।" "तदसत् प्रमाण के द्वारा नहीं हो सकता है। इसका विशद नयस्य स्वाथै देशलक्षणत्वेन स्वार्थनिश्चायकत्वासिद्धेः।” विवेचन स्वतन्त्र लेखमें किया जावेगा। नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः ।
__ न्यायदर्शनने अवश्य अपने ऊपर पाये आघातोंका नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते। तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता ।
छल, जाति और निग्रहस्थानके स्वीकार-द्वारा परिहार समुद्रबहुत्वं वा स्यात्तञ्चेवास्तु समुद्रवित् ॥
करनेका प्रयत्न किया है, पर वह इस दिशा असफल श्लोक वार्तिक पृ० १८ ६ "प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था" न्यायदर्शन आदि