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किरण ५ ]
जैनदर्शनका नयवाद
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ही रहा । कारण, कोई भी प्रेशमन असद् प्रवृत्तिको और मनसे होता है लेकिन 'नय' केवल मनसे ही
अङ्गीकार कर अपने पक्षका समर्थन तथा परपक्षका होता है। निराकरण नहीं करेगा। वह तो समन्वयका रास्नाढूँढ़ेगा जैनदर्शनमें नयवादका परिवार देखते ही बनता
और वह रास्ता नयोंमें ही निहित है। दर्शनका उद्देश्य है। या यों कहिय कि जितने वचन मार्ग हैं उतने ही जगतके प्राणियों का हित करना और उन्हें उचित नय हैं। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं किमार्ग पर लाना होता है, वितण्डावादसे उक्त दोनों बातें जितना वचन व्यवहार है और वह जिस जिस तरह सम्भव नहीं हैं । वही दर्शन सत्य एवं हितकारी है से हो सकता है वह सब नयवाद है । नयोंका जो लोहाकर्षक चुम्बकके समान आत्माओंको श्राक- वचनोंके साथ ज्यादा घनिष्ट सम्बन्ध है या यों कहिये र्षित करके उन्हें उनके सच्चे हितके मार्गमें लगा देता कि नय वचनोंसे उत्पन्न होते हैं। शब्दमें एक साथ है। जैनदर्शनका नयवाद विविध मतोंी असमंजसता एक समयमें अनेक धर्मों या अर्थोके तिपादन करने रूप श्रावणकी अंधेरी रातमें चलने वाले बटोहीके की शक्ति नहीं है। एक बार उच्चारण किया गया शब्द लिय नहीं बुझने वाले विशाल गैसके हंडोंका काम एक ही मर्थका बोध कराता है । इसी लिये अनेक देता है।
धर्मोंका पिण्डरूप वस्तु प्रमाणका विषय होती है, नय वस्तु अनेकधर्मात्मक है। अनकधर्मात्मक वस्तु का नहीं। का पूग पुरा और ठीक ठीक बोध हम इन्द्रियों या प्राचार्यों ने नयकं मुख्य एवं मूल दो भेद किये वचनों द्वाग नहीं कर सकते हैं। हाँ, नयोंके द्वारा है- द्रव्यार्थिक, २ पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिककं तीन एक एक धर्मका बांध करते हुए अनगिनत धर्माका भेद है ५ नैगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार । पर्यायार्थिक जान कर सकते हैं। वस्तु नित्य भी है, अनित्य भाह, के चार भेद हैं-१ ऋजुसूत्र, २ शब्द, ३ समभिरूढ़, एक भी है, अनक भी है, भेदरूप भी है, अभेदरूप
४ एवंभूत । इस प्रकार न अतिसंक्षेप, न अति है श्रादि विगंधी सरीखे दीख रहे धर्मोकी व्यवस्था
विस्तारकी अपेक्षा कर नयोंके सान भेद कहे गये हैं। नयवादसे ही होती है । उपर्युक्त विवंचनसं यह म्पष्ट
इन सात नयोंमें आदिकं चार नय अर्थप्रधान होनेसे होजाता है कि 'नय' भी पदार्थों के जाननके लिय एक 'अर्थनय' कहे जाते हैं और अन्तके तीन नय शब्द. आवश्यक चीज है।
प्रधान होने के कारण 'शब्दनय' कहे जाते हैं। इन विवक्षित एवं अभिलषित अर्थकी प्राप्ति या ज्ञप्ति नयों का स्वरूप यहां बतानेस लखका कलेवर बढ़ करने के लिये वक्ताकी जा वचन प्रवृत्ति या अभिप्राय जायगा । अतः नयचक्रादि ग्रंथास इनका स्वरूप विशेष होता है वही 'नय' है ' । यह अर्थ-क्रियार्थियों जान लेना चाहिये। की अर्थ-क्रियाका संपादक है । प्रमाण तो सब इंद्रियो -
" ८ "जावइया वयणवहा तावइया चेव होति पयवाया" ७ "वक्तुरभिप्रायविशेषः नयः"। "स्याद्वादप्रविभक्तार्थ
-सम्मतितक विशेषव्यनको नयः ।। देवागम, अष्टसहस्री श्लोकवार्तिक ६ "सकृदुचारितः शन्दः एकमेवार्थ गमयंति"।
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