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समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
किरण २ ]
ठीक प्रतीत नहीं होता । ब्रह्म नेमिदत्त की कथा में और भी कई बातें ऐसी हैं जो ठीक नहीं जँचती । इस कथामें लिखा है कि
“कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने के लिये समर्थ (स्निग्धादि ) भोजनोंकी सम्प्राप्तिका अभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर उत्तरकी ओर चल दिये । चलते चलते वे ' पुण्ड्रेन्दुनगर 'नु में पहुंचे, वहाँ चौद्धोंकी महती दानशालाको देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया, परन्तु जब वहाँ भी महाव्याधि की शान्तिके योग्य आहार का अभाव देखा तो आप वहाँ से निकल गये और क्षुधा पीडित अनेक नगरों में घूमते हुए ' दश पुर' नामके नगर में पहुंचे । इस नगर में भागवतों ( वैष्णवों) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर कि यहाँपर भागवन लिङ्गधारी साधुओं को भक्तजनों द्वारा प्रचुर परिमाण में सदा विशिष्ट आहार भेंट किया जाता है, आपने बौद्ध वेषका परित्याग किया और भागवत वेष धारण कर लया, परन्तु यहाँका विशिष्टाहार भी आपकी भम्मक व्याधिको शान्त
में समर्थ न हो सका और इस लिये आप यहाँ से भी चल दिये। इसके बाद नानादिग्देशादिकों में घूमते हुए आप अन्तको ' वाराणसी' नगरी पहुँचे और वहाँ अपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालय में प्रवेश किया । इस शिवालय में शिवजीके भोगके लिये तय्यार किये हुए अठारह + 'पुण्डू' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी कहते हैं । 'पुण्डेन्दु नगर से उत्तर बंगाल के इन्दुपुर, चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास शहरका अभिप्राय जान पड़ता हैं। छपेहुए 'श्राराधनाकथाकोश' (श्लोक ११ ) में ऐसा ही पाठ दिया है। संभव है कि वह कुछ अशुद्ध हो ।
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प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आप ने सोचा कि यहाँ मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो जायगी। इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह दिव्य आहार - ढेरका ढेर नैवेद्य- बाहर निक्षेपित किया गया तब आपने एक युक्ति के द्वारा लोगों तथा राजाको श्राश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका काम अपने हाथमें लिया। इस पर राजाने घी, दूध, दही और मिठाई ( इक्षुरस ) आदिसे मिश्रित नाना प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाण में (पूर्णै: कुंभशतैर्युक्तं = भरे हुए सौ घड़ों जितना ) तय्यार कराया और उसे शिवभोजन के लिये योगिराजकं सुपुर्द किया। समंतभद्रने वह भोजन स्वयं खाकर जब मंदिर के कपाट खोले और खाली बरतनोंको बाहर उठा ले जानेके लिये कहा, तब राजादिकको बढ़ा आश्चर्य हुआ । यही समझा गया कि योगिराजने अपने योगबल से साक्षात शिवको अवतारित करके यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे गजाकी भक्ति बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवेद्यका समूह तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर परिमाण में उत्कृष्ट आहार का सेवन करते हुए, जब पूरे छह महीने बीत गये तब आपकी व्याधि एकदम शांत होगई और आहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने लगा । इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि. योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'शिव' को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित होकर योगी से प्रणाम न करनेका कारण पूछा। उत्तर में योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह रागी द्वेषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता। मेरे नमस्कारको सहन करने के लिये वे जिन