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भनेकान्त
[वर्ष ४
है?
एक यान्त्रिक गति (mechanical movement) यह बेचैन क्यों है ? दुःखी क्यों है ? क्या इम
दुःग्वस किमी तरह छुटकारा नहीं ? कौन है जो ___क्या यह सब कुछ काल है ? कालकी मष्टि है, इमका बाधक है ? कौन है जो इसका घातक है ? ज उसके विकास और हामके साथ बढ़ती और क्या किसी तरह उसे मनाया जा मकता है ? क्या घटती है ? उसके चढाव और उतरावक साथ चढती किसी तरह उस जीता जा सकता है ? और उतरती है ? उसकी सुबहशामके साथ उदय
यह क्या मांगता है ? यह क्या चाहता है ? और अम्त होती है ?
इसका क्या मतलब है ? क्या प्रयोजन है ? इसको __ क्या यह उम काल परिच्छिन्न-प्रकृतिका स्वभाव
शुद्धिका क्या उपाय है, क्या मार्ग है ? है, जो अमीम अवकाशमें विकसित होती हुई, जदि
इन सवालों की क्या हद है ? इन्हें मोचते मोचने लता और पूर्णताकी ओर बढ़ती हुई जीवन सर्गग्वी
भी इनका अन्त नहीं आना ! जितना गहग
विचार किया जाता है, जितना सूक्ष्म तर्क उठाया जाता विशेषता हामिल कर लेती है ?
है, उतना ही जीवनतत्त्व जटिल और पेचीदा होता क्या यह एक नियति है, परिनिश्चिति है, अमिट
चला जाता है, उतना ही उसके लिये शंकामम शंका, होनी है, लिग्वा हाभाग्य है ? क्या यह एक चित्रित
मवालमेंस सवाल निकलता चला जाता है। जीवनचित्रपट है ? उपहामका अभिनय है ? विनोदका ड्रामा तत्त्व क्या है ? प्रश्नोंका घर है, शंकाओंका ठिकाना है, जो किमी प्राज्ञानुमार, किी अनुशासनक है। इमी रूपका दग्वकर प्राचीन वैदिक ऋपियोंने अनुमार बगवर खेला जारहा है ? क्या यह इमका नाम 'क' अर्थात 'क्या' रग्ब छोड़ा है ।। किमीकी देन है ? किमीकी ईजाद है ? किमीकी समस्या की व्यापकता-- इच्छापूर्तिका माधन है ?
___ ये प्रश्न आजके प्रश्न नहीं, कलके प्रश्न नहीं, क्या यह इन मबम भिन्न है ? कोई विलक्षण ये केवल पूर्व देशके प्रश्न नहीं, पश्चिम देशक प्रश्न म्वतःमिद्ध मत्ता है ? क्या यह ब्रह्म है, अात्मा है ? नहीं । ये केवल विद्वानांके प्रश्न नहीं, मूढ़ लोगोके
क्या यह उपर्युक्त चीजोमस किनही दो वा प्रश्न नहीं। ये अनादि प्रश्न है, मनुष्यमाचके प्रश्न अधिक चीजांक ममलनका फल है ? '
हैं। ये दुःम्बके माथ बंधे हैं । दुःग्व इष्टवियाग
अनिष्टसंयोग माथ बंधा है, इप्रवियोग हानि हाम १(श्र) कालः स्वभावो नियनिर्यदृच्छा,
के साथ बंधा है। अनिष्टमंयांग गंग बुढ़ापा मृत्युक भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम । संयोग एषा न स्वात्मभावाद्,
साथ बंधा है। जब जब ये दर्दभग हानियां उदयम श्रात्माप्यनीशः सुग्वदुःखहेतोः ॥
१ (अ) कं ब्रह्म-छा. उप. ४.१०.५.
___ श्वे. उप १.२. (श्रा) को हि प्रजापतिः-शत. वा. ६. २. २५. (श्रा) कालो महाव णियई पव्वकयं पग्मिकारणेगंता । (इ) प्रजापति: वैर्क:----ोत. बा.२.३८.; यजुर्वेद मिच्छनं ते चेवा (व) ममामश्रो होति मम्मत्त ।।
–सन्मतितर्क ॥ ३.५३ ॥ (ई) कस्मै देवाय हविषा विधेम-ऋग्वेद १०.१२१.
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