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________________ रत्नत्रय-धर्म [ले.--. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य ] मामा और शरीर जुदे जुदे दो पदार्थ हैं। सम्यग्दर्शन पारमा अनन्त गुणोंका पुष है, प्रकाशमान अनादि कालस इस आत्माका पर-पदार्थोंके साथ है, चैतन्य ज्यानिरूप है; परन्तु शरीर जड़-भौतिक सम्बन्ध होरहा है। जिससे वह अपने स्वरूपको भूल पदार्थ है। आत्मा अजर अमर अविनाशी है, परन्तु कर पर-पदार्थों को अपना समझ रहा है । कभी यह शरीर जीर्ण शर्ण होकर नष्ट हो जानेवाला है। शरीरको अपना समझता है और कभी कुछ विवेकजब तक यह प्रात्मा मंसाग्में रहता है नब तक उसके बुद्धि जागृत होती है तो शरीरको पृथक पदार्थ मान साथ शरीरका सम्बन्ध होना अवश्यम्भावी है । मुक्ति कर भी कर्मक उदयम प्राप्त होनेवाले सुख-दुग्वको अवस्थामे शरीरका सम्बन्ध नहीं रहता । आत्माकं अपना समझना है, जिसमें यह प्रात्मा अत्यन्त अनन्त गुणोंमें मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् दुग्यी होता है। मैं सखी हैं. दाग्यी हैं, निर्धन हैं, चारित्र य तीन गुण मुख्य हैं। ये पात्माके ही म्वरूप धनाया है. मबल हैं. निर्बल हैं, ये मेरे पुत्र हैं और हैं। इनमें प्रदेश-भेद नहीं है, मिर्फ गुण गुणीकी मैं इनका पिता है' इस प्रकार के विकल्पजालमें उलझा अपेक्षा ये न्यारे न्यारे कहलाते हैं। जिस प्रकार एक हुआ यह जीव अपने आपकं शुद्धम्वरूपको भूल समुद्र वायुकं वेगसे उठी हुई लहगेंकी अपेक्षा अनेक जाता है। जीवकी इस अवस्थाको मिध्यादर्शन' रूप दिखाई देता है परन्तु उन लहगें और समुद्रके कहते हैं। मिध्यादर्शन वह अन्धकार है जिसमें यह बीच प्रदेशों की अपेक्षा कुछ भी अन्तर नहीं रहता आत्मा अपने आपको नहीं पहचान सकता-अपने उमी प्रकार प्रात्मा और सम्यग्दर्शनादिमें प्रदेशोंकी आपको पर-पदार्थोसे न्याग अनुभव नहीं कर सकता। अपेक्षा कुछ भी अन्तर नहीं रहता । वन्तुष्टि में जिस जिसने अपने स्वरूपको पहिचाना ही नहीं वह उसे तरह अनेक लहरें ममुद्ररूप ही है उसी तरह सम्य- प्राप्त करने का प्रयत्न ही क्यों करेगा ? ग्दर्शनादि भी प्रात्मरूप ही है। एक मिहका बच्चा छुटपनसं सियागेंके बीच 'जातो जानौ यदुत्कृष्टं तद्रस्नमिहोच्यते', इस पला था, जिमसं वह अपने आपको भी सियार नियमके अनुसार प्रात्मगुणोंमें सर्वश्रेष्ठ होने के कारण समझने लगा था । जब कभी गजराज सामने आता सक्त तीन गुण ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं । इस तरह तो वह भी अन्य सियागेकी भांति पीछे भाग जाता जैनसम्प्रदायमें पत्नत्रयका अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्य- था। एक दिन वह पानी पीने के लिये नदीके तीर पर ग्ज्ञान और सम्यचारित्र प्रचलित है। भागे इन्हींका गया । ज्यों ही उसने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा विशेष स्वरूप लिखा जाता है। त्यों ही वह अपने आपको सियारोंसे भिन्न अनुभव
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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