SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ४ ] करने लगा । वह उसी समय सियागेकी संगति छोड़ कर सिंहों में जा मिला। अब वह गजगजको देखकर पीछे नहीं हटता किन्तु झपटकर उसके मस्तक पर बैठता है । सुनते हैं कि कौए कोयलोंके बच्चोंको अपने घोंसलों में उठा लाते हैं और अपना समझकर उनका पालन-पोषण करते हैं । उस समय कांयलके बच्चे भी अपने आपको कौआ समझते हैं, पर ममकदार होने पर जब वे अपनी कुहू कुहू और atest na ataar अन्तर समझने लगते हैं त्यों ही वे उनका साथ छोड़कर अपने मुण्डमें जा मिलते हैं। इसी प्रकार जबतक यह आत्मा मिध्या-दर्शन रूप अन्धकार आवृत हो अपने आपको भूला रहता है तबतक मिध्यादृष्टि कहलाता है परन्तु जब विवेक बुद्धिके जागृत होनेपर आत्माको आत्मरूप और परका पररूप समझने लगता है तब सम्यग्दृष्टि कहलाने लगता है उसके इस भेद - विज्ञान और तद्रूप श्रद्धानको ही 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। इस भेद-विज्ञान और तद्रूप श्रद्धानमे ही जीव मोक्ष प्राप्त करनेके लिय समर्थ होते हैं । इसीलिये इनकी प्रशंसा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रजीने लिम्बा है भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किस केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बढा ये फिल केचन ॥ अर्थात- अभी तक जितने सिद्ध हो सके हैं व एक भेद-विज्ञान के द्वारा ही हुए हैं और अभी तक जो संसारमें बद्ध हैं—कर्म कारागार में परतन्त्र हैं— वं सिर्फ उसी भेदविज्ञान के अभाव के फलस्वरूप हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण स्वपर को भेदरूप श्रद्धान करना है । यहाँ सम्यक् शब्दका अर्थ सच्चा और दर्शनका अर्थ विश्वास श्रद्धान होता है । सम्यग्दर्शनका दूसरा स्वरूप इन सब बातोंको स्मरण रखकर ही जैन शास्त्रोंमें एक बार दो लड़के किसी मह (पहलवान) के सम्यग्दर्शनका दूसरा लक्षण बताया है रत्नत्रय - धर्म २७६ पास पहुँचे। दोनोंकी अवस्था सत्रह अठारह सालके बीच थी। परन्तु दोनों ही शरीर दुबले-पतले थे । दोनोंके गाल पिचके हुए थे. कमर झुक रही थी और कन्धे नीचेकी ओर ढले हुए थे। मल्लने उनसे कहायौवन के प्रारम्भ में आप लोगोंकी यह अवस्था कैसी ? मल्लकी बात सुनते ही उन दोनों बालकों से एक बोला - उस्ताद ! मेरा शरीर जन्मसे ही ऐसा है, हमारे शरीरका यही स्वभाव है । परन्तु उसका दूसरा माथी मोचता है कि यदि शरीरका स्वभाव दुबला होना होता तो फिर ये उस्ताद इतने हट्टे-कट्टे क्यों हैं ? मालूम होता है कि मुझमें कुछ खराबी है यदि उस स्त्रराबीको दूर कर दिया जावे तो प्रयत्न करने पर मैं भी उस्ताद जैसा हो सकता हूँ । उसने उम्नादका अपना लक्ष्य बनाया, व्यायाम-विद्याका ज्ञान प्राप्त किया और अपने आगेके साथियोंकी पद्धति देखकर व्यायाम करना शुरू कर दिया, जिससे वह थोड़े ही दिनोंमें हट्टा-कट्टा एवं बलिष्ठ हो गया। अब वह मदमाती चालमें झूमता हुआ चलता है और उसका दूसरा साथी जो कि दुबला-पतला होना अपने शरीर का स्वभाव समझे हुए था अपनी उसी हालत पर है। पाठक ! ऊपर लिखे हुए उदाहरण से सिद्ध होता है कि जीबात्मा को अपने सच्चे स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए सबसे पहले एक लक्ष्यकी आवश्यकता है, फिर शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करने के उपायोंका जानना आवश्यक है और इसके बाद आवश्यकता है जान हुए हुए उपायोंको कार्यरूप में परिणत करने की । जाने । उपायोंको कार्यरूपमं परिणत करने वाले पुरुष भी उसके उस काममें सहायक होते हैं 1
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy