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________________ जीवनमें अनेकान्त [ लेखक श्री अजितप्रसाद जैन, एम० ए०, एडवोकेट ] - - - - अनेकान्त-सिद्धान्त, जिसका मूल सदृष्टि है, केवल प्राप्ति, प्रामगुणोंका विकास और कर्मबन्धनमे मुक्ति है। धर्मपुस्तकों में ही बन्द नहीं रहना चाहिये और न उपका संसार-सुख, स्वर्ग-सुख पूजाका ध्येय नहीं है, वह तो पूजाउपयोग केवल वाद-विवाद अथवा शास्त्रार्थ तक ही सीमित द्वारा पुण्योपार्जनसे स्वयं ही होजाता है । दर्शन-पूजा एवं रखना चाहिये । श्रावकोंको गृहस्थके सब कार्मोमें उठते-बेटते, स्तुतिपाठके ध्येयका नमूना कविवर बुधजनजीने यह कहकर ग्वाने-पीने, घर-घरसे बाहर, दुकान पर. दफ्तरमें, कचहरी दिखाया है-- में, बाजारमें हर स्थान और हर अवसर पर अनेकान्तका जाच नहीं सुरवास, पुनि नरराज, परिजन माथजी । आश्रय लना गहिये । अन्धविश्वास देखादेवी बेसमझे बुध जाच हूँ तुम भक्ति भव भव दीजिय शिवनाथजी || काम करना, रूढि अथवा फैशनका गुलाम बनना है और पूजक अपने चाराध्य परमा-माम केवल यही चाहता है वह मददृष्टि न होकर अकर्मण्यता है। कि जन्म-जन्ममें उसको परमात्मपदकी भक्ति प्राप्त हो. जो परीक्षा-प्रधानी होना भावकका परम कर्तव्य है। अतः परमात्मपदकी प्राप्तिका मुख्य साधन है । सन्तानकी लालसा. श्रावककी दैनिक क्रियाओं पर गवेषणापूर्ण स्वतंत्र विचार अधिकारकी प्राप्ति, स्वर्गके भोगोंकी बांछाम वह पूजा नहीं करना आवश्यक है. जिससे श्रावकका दैनिक कार्यक्रम अने करना है । कविवर दौलतरामगीने भी माही कहा हैकान्तकी-मदरन्टिकी--कसौटी पर कसा नाकर सच्चा और मेरे न चाह कछु और ईश महत्वपूर्ण होसके। रग्नत्रय निधि दीजे मुनीश । इम तात्विक भावको भूलकर लोग एकान्त व्यवहारश्रावकके षट यावश्यक कर्मों में प्रथम ही देवपूजा है। श्रावकको सबसे पहले देवका और फिर पूजाका ठीक अर्थ । पक्षमें इतने लिप्त होगये कि पूजाफलमें-- 'मुग्व-धन-जस-मिद्धिः, पुत्रपौत्रादि-वृद्धि । समझना चाहिये। मकल-मनस-सिद्धि, होत है ताहि रिद्धि ॥' __श्रावकों-द्वारा पूज्य देवका मतलब ऐसे माधारण देता को प्रधानता देदी गई ! और सामारिक उद्देश्य ही पूजाका में नहीं है जिम्मको कुछ चढाकर, स्तुनि पढकर, नमस्कार एक मात्र ध्येय बन गया है !! करके खुश किया जाय, और खुश करके उसमे अपना मतलब यह सब जानते हैं कि लोग रोग, दुःग्य नथा कष्टकी गांठा जाय, मुंह-मांगी मुराद पूरी की जाय । अथवा जिसको शान्तिके लिये शान्तिमाथ भगवानकी पा बोलते, करने बीमारीके दूर करने, स्कूल-कालिज-पाठलाला-विद्यालयकी और करवाते हैं। जयपुर राज्यस्थ चांदनगांवकं महावीरजी परीक्षा उत्तीर्ण होने, व्यापारमें-सह में रुपया कमाने. सन्तति प्राप्ति करने, या मुकदमा जीतने के लिये पूजा जाय । पेस ही रिद्धि-सिद्धि-दायक मशहर होजानकी वजहसे पूजे जिनेन्द्र भगवान श्रीअन्तदेवकी या उनके प्रतिबिम्बकी जाने हैं, और इसी कारणसे महावीरजी पर महावीरजयन्ती पूजा एकान्ततः किसी व्यक्तिविशेषकी पूजा नहीं है. वह प्रायः के धर्मोग्पवने बड़े मेलेका रूप धारण कर लिया है। और शनिकी पूजा, गुणकी पूजा, प्राप्तपुरुषकी पूजा अथवा परमात्मा इस वर्षके मेलमें तो वहां म्यब गाली-गलौज, मारपीट, की पूजा है। और पजामे अभिप्राय गुणानुरागपूर्वक सदगुणकी पलिम और तहसीलदारके हस्तक्षेप तककी नौवन आगई है.
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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