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जगत किसकी मुद्रा से अंकित है ?
नो ब्रह्माङ्कितभूतलं न च हरेः शम्भोर्न मुद्राङ्कितं, नो चन्द्रार्क- राङ्कितं सुरपतेर्वज्राङ्कितं नैव च । षड्वक्त्राङ्कित - बुद्धदेव - हुतभुग्यत्तोरगैर्नाङ्कितं, नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र-मुद्राङ्कितम् ॥ ११ ॥ मौञ्जी- दण्ड- कमण्डलु-प्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणोरुद्रस्यापि जटा कपाल मुकुटं कोपीन खट्वाऽङ्गनाः । विष्णोश्चक्र-गदादि-शङ्खमतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं, ननं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ॥ १२ ॥
- अकलंकम्नाः
यह जगत ब्रह्माकी मुद्रामे अंकित नहीं हैं - ब्रह्मा नामके लोकप्रसिद्ध विधाता की कोई मुहर अथवा छाप म जगन पर लगी हुई नहीं है: ब्रह्माकी मुद्रा मौञ्जी- दण्ड- कमण्डलु श्रादिके रूप में मानी जाती है, वह किसी भी प्राणी के शरर पर जन्मकाल मे अंकित नहीं है। विष्णुकी मुद्रासे भी यह जगत मुद्रित नही है -- विष्णु नामके लोकमान्य विकी जो मुद्रा चक्र-गदा-शंखादिक के रूपमें मानी जाती है उसकी भी कोई छाप इस जगत के प्राणिवर्गपर पड़ी हुई नहीं है । शंभ मुद्रासे भी यह जगत अंकित नहीं है- शंभु नामके रुद्र श्रथवा लोकप्रसिद्ध महादेव नामके ईश्वरकी जो मुद्रा जटा कपाल मुकुट-कौपीन खट्वा - अंगना - रुण्डमालादि के रूप में मानी जाती है उसकी छापसे भी जगत के प्राणियोका शरीर उत्पत्तिकाल मे चिन्दित नहीं है । चन्द्रमा और सूर्यकी किरणों मे भी यह जगत अंकित नहीं है— चंद्रमा और सूर्य लोकमं देवता माने जाते हैं, प्रभु समझकर पूजे जाते हैं, उनकी किरणों का जो रूप है वही उनकी मुद्रा है, उसकी भी कोई छाप जगत के प्राणियां के शरीर पर नही पाई जाती, वे उसे लिये हुए उत्पन्न नहीं होते । नहीं है— इन्द्र नामका जो लोक प्रसिद्ध देव है, उसकी मुद्राका प्रधान शरीर चिन्हित नहीं है। पवक्त्र नामका जो कार्तिकेय देव है उसकी प्रणमुखी मुद्रासे भी यह जगत् ग्रंकित नहीं है । बुद्धदेवकी रक्ताम्बरी मद्रासे भी यह जगत अंकित नहीं है। इसी तरह अमि, यक्ष और उरग ( शेषनाग ) नामके देवोकी मुद्रामे भी यह जगत अंकित नहीं है। हे वादियो ! – विभिन्नमतोंके शिक्षको ! – देखो, यह जगत नग्न है - प्राणिवर्ग श्रथवा जनममूह नग्नरूपमे ही उत्पन्न होता है- श्रौर 'नग्नमुद्रा' जिनेन्द्रकी है, इस लिये यह सारा जगत जिनेन्द्र देवकी मुद्रासे अंकित है - जिनेन्द्रदेव के सिक्केकी छाप जन्मसे ही सबके शरीरों पर पड़ी हुई हैं। ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव महाप्रभु हैं, उनका सिक्का सर्वत्र प्रचलित है और इस लिये उन्हें भुलाना — उनके शासन मे विमुख होना किसी तरह भी उचित नहीं है । यही महत्वका चोजभरा भाव कलंक देवके उक्त दोनों पद्य में समुच्चय रूपसे संनिहित है ।
सुरपति (इन्द्र) के वज्र से भी यह जगत अंकित अंग वज्र है उससे भी इस जगत के प्राणियों का