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________________ ६२३ अनेकान्त [वर्ष ४ वर्णित मृत्तिका, शुक और मर्प नामकं तीन श्रोताओं बाहाभ्यन्तरनेः संग्यात्गृहीत्वा तु महानतम् । का उल्लंख उन अपात्र-श्रोताओं की सूचक गाथाम भो मरणान्ते तनुत्यागः सरलखः स प्रकीय॑ते ।।१२।। पाया जाता है जिसका चिन्तन धग्संनाचार्यने किया सल्लेखनाकी चतर्थ शिक्षाबतके रूपमें जो एक था और जिसका ऊपर उद्धृत किया आ चुका है। मान्यता है वह दिगम्बर सम्प्रदायकी है, जिमका और इसमें स्पष्ट है कि जटिल मुनिने इम विषयमें सबसे पुगना विधान प्राचार्य कुन्दकुन्दकं चारित्तप्राचीन दिगम्बर परम्पगको ही अपनाया है-श्वेता- पाहड़की निम्न गाथामें पाया जाता है :म्बर परम्पगको नहीं। मामाइयं च पढम विदियं च तेहव पोसई भणियं । ___ऊपरके इस मम्पूर्ण विवेचनपग्स स्पष्ट है कि । तड्यं च अतिहिपुज्जं चउत्थ मल्लहणा ते ॥२६॥ मुनि दर्शनविजयजीने जिन युक्तियों के आधारपर ___ यह मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदायको इष्ट नहीं है। प्रकृतप्रन्थका श्वेताम्बर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है उनके उपलब्ध आगम-साहित्यमें भी वह नहीं पाई उनमें कुछ भी तथ्य अथवा सार नहीं है और इस जानी, जैमा कि मुनि पुण्यविजयजीके एक पत्रके लिये उनके बलपर इम ग्रन्थको किसी तरह भी श्व निम्न वाक्यमं प्रकट है :नाम्बर नहीं कहा जा मकता-वैमा करना निग ___ "श्वेताम्बर भागममें कहीं भी १२ बारह व्रतोन हास्याम्पद है। सल्लेखनाका समावेश शिक्षाप्रतक रूपमें नहीं किया अब मैं इस प्रथकी कुछ ऐमी विशेषताओंका गया है।" थोडामा दिग्दर्शन करा देना चाहता हूं जिनके बलपर (२) वगंगचरितके २५वें सर्गमें प्राप्त के जिन १८ यह भले प्रकार कहा जा मकता है कि प्रस्तुन वगंग- दोषोंका अभाव बतलाया है उनमें क्षुधा, तृषा, जन्म, परित श्वेताम्बर प्रन्थ न होकर एक दिगम्बर ग्रंथ है: मरण, जरा (बुढ़ापा) व्याधि, विस्मय और म्वेद (१) वगंगचरितके १५वें सर्गमें प्रन्थकर्ताने, (पमीना) नामक दोषोंको भी शामिल किया है, जिन श्रावकोंके १२ ब्रोंका निर्देश करते हुए, शिक्षाबतके का केवलीके प्रभाव होना दिगम्बर सम्प्रदाय-सम्मन चार भेदोंमें सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाबतके रूपमें है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय-सम्मत नहीं। इस कथनके निर्दिष्ट किया है; जैसा कि उसके निम्न पद्योंसे दांतक पद्य निम्न प्रकार हैं:प्रकट है: निद्राश्रमक्वंशविषादचिन्ताकुत्तुइजराज्याधिभौविहीनाः । समता सर्वभूतेषु संघमः शुभभावना । अविस्मयाः स्वेदमलेरपेता प्राप्ताभवन्त्यप्रतिमस्वभावाः ॥८॥ मातरीवपरित्यागस्तरि सामाषितम् ॥१२॥ द्वेषश्च रागरच विमूढताच दोषाशयास्ते जगति प्रस्ताः । मासे चत्वारि पर्वाणि तान्युपोयाणि यलनः । न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानई तस्याप्ततमा बदन्ति ॥८॥ मनोवारकापसंगुल्यास पोषधविधिः स्मृतः ॥१२॥ इन पद्योंमे निर्दिष्ट १८ दोषोंकी मान्यतासे यह चतुर्विधो बराहारः संवतेभ्यः प्रदीयते । स्पष्ट जाना जाता है कि प्रथकर्ता जटिलमुनि दिगभवादिगुणसंपत्यातत्स्वातिपिपूजनम् ॥१२॥ म्बर सम्प्रदायके थे। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदायमे
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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