SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ११-१२] परांगवरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर - १८ दोषोंकी जो दो मान्यताएँ हैं उनमेंस किमी में भी विशालबुद्धिः श्रुतधर्म र प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या । क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, व्याधि, विस्मय और नस्याज्य निर्मास्यमिवात्मराज्यमन्तः पुरं नाटकमर्थसारम् ॥५॥ स्वेद नामक दोषोंको शामिल नहीं किया गया है। विभूषाणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्वखंडेः । जैसा कि श्वेताम्बर्गय 'लोक-प्रकाश' प्रन्थके निम्न माजीविताम्ताजहौस बाह्यमभ्यन्तरास्ताश्च परिग्रहापान् ॥८६ वाक्योंसे प्रकट है: अपास्य मिथ्यात्वकवायदोषान्प्रकृत्य खोभं स्वयमेव तत्र । "अन्तराया दान। लाभ२ वीर्य३ भोगोपभोगाः। जग्राह धीमानय जातरूपमन्य रशक्यं विषयेषु बोलेः ।।७।। हामोदरस्य७ गतीम भीति जुगुप्सा शोक एव च ॥ इसके सिवाय प्रन्थकाग्ने इसी अन्य के ३० वें कम्मो १२ मिथ्यात्व१३ मज्ञान निद्रा१५ चाविरति१६स्तथा। सर्गमें वगंगके तपश्चरण और विहार आदिका वर्णन गगो१७ द्वेषश्नानो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥" करते हुए वगंगमुनि और उनके माथी मुनियों का "हिंसा१ ऽलीकर मदत्तं च३ क्रीडा हास्या रती रतिः । म्पष्टतया 'दिगम्बरपाषित किया है। यथा:शोकाभयंक्रोधमानं१माया१२लोभा१३स्तथा मनः१४।। ' विदा शालावन्टन भूषिताङ्गाः प्रज्ञा रागात्युपभोगशकाः । स्युःप्रेमा५ मत्सरा ज्ञान निद्वार अष्टादशेत्यमी" हेमन्तकाले धृतिबद्धकला दिगम्बरा बभ्रकाशयोगाः ॥ विशेषताओं के इम दिग्दर्शनपरसे जब यहाँ नक यदि मुनिजी क्षुधादिदोषोंके अभावरूप इस दिगम्बर भी म्पष्ट है कि कथानायक वरांगगजा दिगम्बर था सम्प्रदाय-मम्मत विशष्ट कथनके रहते हुए भी प्रकृन और उसन तथा उसके साथी गजानिकोंन भी प्रन्थको श्वेताम्बर घोषित करनका आग्रह करते हैं दिगम्बर दीक्षा ली थी, तब इस प्रथके दिगम्बर तो इससे उन्हें केवलीके कवलाहारका प्रभाव भी प्रन्थ होने में कुछ भी सन्देह नहीं रहता और इस मानना पड़ेगा, जो कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विरुद्ध लिय मनि दर्शनविजयजीने इमं श्वेताम्बर घोषित है। और इस तरह उन्हें इम प्रन्थके अपनाने में लेने करनेकी जो चेष्टा की है वह उनकी दुश्चेष्टामात्र के देने पड़ जायेंगे। है। उनकी युक्तियों में कोई दम नहीं-चे मवेथा (३) वगंगचरितके २९ वें मर्गके कुछ पयोंमें निःसार हैं, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । ऐमी गजा वगंगकी जिनदीक्षाका वर्णन दिया है और हालतमें इस प्रस्थको दिगम्बर प्रन्थ बतलाना सर्वथा बतलाया है कि उस विशालबुद्धि गजाने, धर्मतत्वका युक्ति-युक्त जान पड़ता है । यहाँ पाठकों को यह जान सुनकर बाह्य और भाभ्यन्तर उभय परिग्रहोंका परि. कर आश्चर्य होगा कि ऐसे ही प्रयत्नोंताग मुनि दर्शनत्यागकर, अन्य विषयी जीवोंके द्वाग अशक्य ऐसे विजयजी भगवजिनमनक महापुराणको श्वेताम्बर जातरूपका-दिगम्बर मुद्राको-धारण किया। वे पथ साहित्यकी मगमग नकल सिद्ध करना चाहते हैं !! इस प्रकार हैं: -चार सेवामंदिरसम्सावा, ता०२६-१-१९४२ *
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy