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साहित्य - परिचय और समालोचन
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न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभाग, द्वितीयभाग - लेखक प्रभाचन्द्राचार्य सम्पादक, पं० महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायशास्त्री, बनारस प्रकाशक, पं० नाथूराम प्रेमी, मंत्री माणिक चन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला चम्बई। बड़ा माइन पृष्ठसंख्या प्र० भा० ६०२ द्वि० भा० ६४० । मूल्य, मजिल्द प्रतिका क्रमशः ८) ८|| ) रु० ।
प्रस्तुत ग्रन्थ अपने नामानुसार न्यायतत्त्वरूपी कुमुदोंको विकसित करनेके लिये चन्द्रमा के समान है । ग्रन्थकार प्रभाचन्द्रने, जो कि एक बहुश्रुत विद्वान थे, अकलंक देन के mater और उसकी स्त्रोपश वृतिका यह बृहत् भाष्य किया है । इसमें अनेकान्ताष्टके द्वारा विविध दार्शनिकांक मन्त
की गहरी आलोचना की गई है। साथ ही, जैनदर्शन की मान्यताको बाधित एवं निर्दोष सिद्ध किया गया है । यह ग्रन्थ न्यायशास्त्र के निशानोंके लिये बहुत उपयोगी है।
इम ग्रन्थ के प्रथम भागकी प्रस्तावना के लेखक हैं पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री | आपने अपनी १२६ पृष्ठकी प्रस्तावना में कलंक देव के समय तथा कर्तृत्वादिके विषयमं श्रच्छा अनुसन्धान किया है और उपलब्ध प्रमाणोंके श्राधारपर कलंकदेवका समय विक्रमकी ७वीं शताब्दी ही निश्चित किया है। अकलंकदेव और उनके सम-सामयिक विद्वानोंका भी संक्षिप्त परिचय दिया है। अकलंकदेव के ग्रन्थोंका परिचय और दूसरे दर्शनोंके प्रथम उनकी तुलना भी की है। इसके सिवाय, न्यायकुमुदचन्द्र के कर्त्ता प्रभाचन्द्रके ममयादिकपर भी कितना ही प्रकाश डाला है आपके विचारसे प्रभाचन्द्र का अस्तित्व समय ई० सन् ६५० से १०२० का मध्य वनकाल है । यद्यपि इस समय सम्बन्धी निर्धारणा में अभी कुछ मतभेद पाया जाता है फिर भी प्रस्तावना विद्वत्तापूर्ण है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है और वह ऐतिहासिक विद्वानां को विचारकी बहुत कुछ सामग्री प्रस्तुत करती है जिसके लिये विद्वान लेखक धन्यवादके पात्र है।
द्वितीयभागकी प्रस्तावनाके लेखक हैं न्यायाचार्य पं०
महेन्द्र कुमारजी शास्त्री जो कि इस समूचे ग्रन्थके सम्पादक हैं । आपने ग्रन्थका सम्पादन बड़े ही परिश्रम के साथ किया है और श्राप उसे आठ वर्ष में सम्पन्न कर पाये हैं। अपने मूलग्रन्थ के नीचे तुलनात्मक टिप्पणिया भी दी हैं, जिनमे अध्ययन करने वालोंके ज्ञानका कितना ही विस्तार होता है। परन्तु हम टिप्पण कार्य में कहीं कहीं इस बातका कम ध्यान रखा गया मालूम होता है कि वे टि वाक्य किम भूनग्रन्थके हैं। उदाहरण के तौरपर प्रथमभाग पृष्ठ ३ की दूसरी पक्ति में 'जीवादिवस्तुनो यथावस्थित स्वभावो वा' वाक्यके from 'म्मो वत्थुमहावो खमादि भावो य दमविदो धम्मो । चारित खलु धन्म जीवाणुं रक्ग्वणो धन्मो' | इस गाथाको टूप प्राभृत टीम में उक्तं च रूपये उद्धृत बनलाया है परंतु वह मूलमें किम ग्रन्थकी है इसे नहीं बतलाया गया । जबाक बतलाना यह चाहिये था कि वह स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी ४७६ नं ० की गाथा है ।
द्वितीयभाग के सम्गदनकी खास विशेषता यह है कि उसमें विषयानुक्रम के अतिरिक्त १२ उपयोगी परिशिष्ट लगाये गये हैं जिनके नाम इस प्रकार है
१ लघीयस्त्रय के कारिकार्धका अकाराद्यनुक्रम । २ लघीयत्र और उसकी स्वविवृनिमे आए हुए अवतरण वाक्यांकी सूची, ३ लघीयस्य और स्वविवृतिके विशेष शब्दोकी सूची, ४ स्त्री कारिकाएं अथवा विवृतिके श्रंश जिन दि० श्वे० श्राचार्योंने अपने ग्रन्थोंमे उद्धत किये है या उन्हें अपने ग्रन्थों में शामिल किया है उन श्राचार्योंके ग्रन्थोंकी सूची । ५ न्यायकुमुदचन्द्र में आए हुए ग्रन्थान्तरोंके श्रव तरणोंकी सूची । ६ भ्याय कुमुदचन्द्र गत उपयुक्त न्यायोंकी सूची ७ न्यायकुमुदचन्द्रगत प्रा० ऐतिहासिक पुरुषोंके नाम तथा भौगोलिक शब्दोंकी सूची ८ न्याय कुमुदचन्द्रमें उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकारांकी सूची ६ न्यायकुमुदचन्द्रगत लाक्षणिक शब्दांकी सूची, १० न्यायकुमुदचन्द्रके कुछ विशिष्ट शब्द । ११ न्यायकुमुदचन्द्रके दार्शनिक शब्दों की सूची । १२ टिप्पणी में तथा मूल ग्रन्थमं श्राये हुए