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________________ किरण ११-१२] वरांगचरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर ६२५ सोहम्मीसाणसशक्कुमारमाहिंदगाहु कप्पा हु। पद-गारव-पहिबद्धो विमयामिस विस-बसेख घुम्मतो। बाबा त्तरगो जाता कापिडगो छठी ॥ ४२ ॥ सो भट्ट-कोहि-जाहो भमा चिरं भवषणे मूदो ॥ १३ ॥ सुकमहासुक्कगदो सदर-सहस्सारगो दु तत्तो दु। दूसरे श्वेताम्बरीय नन्दीसूत्रके 'सेलपण' मादि पाणद पाणद-भारण-अच्युदया होति कप्पा हु ॥४५३॥ जिस वाक्यमे (पात्र-अपात्र रूपसे ) १४ श्रीनामों के मज्झिम-घड जुगलाणं पुश्वावर जुम्मगेसु सेसंसु। दृष्टान्त बतलाये जाते हैं वह इस प्रकार हैसम्वत्य होति इंदा इदि वारस होति कप्पा हु ॥४५॥ सेलधण कुहग चालिणि परिपूर्णग स महिस मेस य । इन गाथाओं में स्वगों के नाम निर्देशपूर्वक बतलाया मसक जलूग विराजी आहग गो भेरी भाभीरी ॥ ४ ॥ है कि-सोलह स्वर्गों से प्रथम चार और अन्त के चार और वरांगचरितक जिस पद्यको इस गाथावाक्य स्वोंमें तो अलग अलग इन्द्र हैं, इससे आठ कल्प का ठोक अनुवाद कहा जाता है वह अपने असली (म्बर्ग) तो ये हुए, शेष मध्यके चाग्युगल() स्वों में रूपम निम्न प्रकार है :प्रत्येक युगल स्वर्गका एक-एक इन्द्र है और इससे उन- मृत्सारिणीमहिषहंसशुकस्वभावाः म्वोंकी चार कल्पोम परिगणना है, इस तरह कल्स माजारकामशकाऽजजलूकसाम्याः। अथवा स्वर्ग बारह होते है । ऐसी हालतमें बारह सच्छिद्रकुम्भपशुसर्पशिलापमानाम्वों की मान्यताको दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध बत स्ते श्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥१५॥ लाना कितना अज्ञानमूलक है और उसे हेतुरूप नन्दीमत्र और वरांगचरित इन दोनों वाक्यों प्रयुक्त करके अनुचितरूपसं एक प्रन्थको अपने संप्र. को तुलना करनेपर साधारणसे साधारण पाठक भी दायका बनाने का प्रयत्न करना कितने अधिक दुःसा- यह नहीं कह सकता कि वगंगचरितका श्लोक नन्दीहस तथा व्यामोहका निदर्शक है, इस बतलानकी सूत्रकी गाथाका ही अनुवाद है । ठीक अनुवादकी जरूरत नहीं रहती। बान तो दूर रही, एक दूसरे का विषय भी पूर्णतया (४) अब रही नन्दीसूत्रसे श्रोताओंके दृष्टांत लेने मिलना-जुलता नहीं है। नन्दीसूत्र में परिपूणग, जाहक, और उसकी गाथाका ठीक अनुवाद करनेकी बात, भंग और भाभीग नामक जिन चार श्रीनाओंका इममें भी कुछ मध्य मालूम नहीं होता । प्रथम ता उल्लेख है वे वगंगवग्निमें नहीं पाये जाते; और श्रीधरसनाचार्यन, जिनका समय वर्तमान नन्दीसूत्रके बगंगचरितमें मृनिका, शुक, ककौर मर्प नामक रचनाकालसं शताब्दियों पहले का है, 'कम्मपयडी जिन चार श्रावकों (श्रीनाओं) का उल्लंम्ब है व मन्दीपाहुड' का ज्ञान दूमराको दनक अवमरपर जिन दो सूत्र में उपलब्ध नहीं होते । ऐमी हालसमें वगंगग्ति गाथाओंका चिन्तन किया था उनमें भी 'सलपण' के उक्त पद्यका नन्दीसूत्रकी गाथाका ही अनुवाद आदि रूपस अपात्र-श्रीनाओंका उल्लेख पाया जाना बनलाना मुनिजीका अति साहम और उनके मुनिपद है। यथा : के सर्वथा विरुद्ध है। इस प्रकारकी भसत्प्रवृत्तियों सेलपण भग्गघट-अहि-नाक्षिणी-महिसाऽवि जाहय-सुएहि। द्वाग सत्यपर पर्दा नहीं गला जा सकता यहाँपर मैं मट्टिप-ममय-समाणं वाखाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२॥ इतना और भी बनला देना चाहता हूँ कि वगंगचरित्र
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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