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प्रन्थ श्वेवारीय है।
(४) वरांगचरिता 'मृतचालनी' आदि श्लोक श्वे० नम्दी सूत्र के 'सेलधरण' आदि वाक्यका ही ठीक अनुवाद है। इससे भी आचार्य जटिल श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं, और इसलिए यह प्रन्थ श्वताम्बरीय है।
अब मुनिजीकी इन युक्तियोंपर क्रमशः नीचे विचार किया जाता है:
अनेकान्त
(१) पहली युक्ति बड़ी ही विलक्षण जान पड़ती है । किसी दिगम्बर विद्वान ने मालूमात कम होनेके कारण यदि कुछ विषयों पर से उस ग्रन्थके दिगम्बर या श्वेताम्बर हानेका संदेह किया है तो इतने मात्रसे वह प्रन्थ श्वेताम्बर कैसे हो सकता है ? किसीके संदेहमात्र पर अपने अनुकूल फैसला कर लेना बड़ा ही विचित्र न्याय जान पड़ता है, जिसका किसी भी विचारक के द्वारा समर्थन नहीं हो सकता | पं० जिनदासजीने ग्रंथकी जिन दो बातोंको दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध समझा है वे विरुद्ध नहीं हैं, यह बात अगली दो युक्तियोंके विचार परसं स्पष्ट हो जायगी और साथ ही यह भी स्पष्ट हो जायगा कि उन्हें मालूमातकी कमी के कारण ही उक्त भ्रम हुआ है।
(२) वरांगचरित्र के तृतीय सर्गमें जन्तु विवर्जित शिलातल पर बैठकर वरदश केवलीके उपदेश देनेका उल्लेख जरूर है, परन्तु इतने मात्रसे वह कथन दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध कैसे हो गया ? इसे न तो पं० जिनदासन और न उनकी बात को अपनाने वाले मुनिजीने ही कहीं स्पष्ट किया है। ऐसी हालत में यद्यपि यह युक्ति बिल्कुल ही निर्मूल तथा बलहीन मालूम होती है, फिर भी मैं यहाँ पर इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि दिगम्बर मान्यता के अनुसार केवली कई प्रकार के होते हैं जिनमें एक प्रकार सामान्य केवलीका भी है जो केवलज्ञानी होते
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हुए भी गन्ध कुटी आदिसे रहित होते हैं।। जटिल कविकी मान्यता में वग्दत्त गणधर सामान्य केवली ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि प्रत्थमें वरदशकी किसी भी बाह्य विभूतिका - समवसरण या गन्ध कुटी आदिका कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इससे वरदत्त केवलीका शिलापट्ट पर बैठकर उपदेश देना दिगम्बर मान्यता के कुछ भी विरुद्ध मालूम नहीं होता और इसलिये उसके आधारपर वगंगचरित्रको श्वेताम्बर बतलाना नितान्त भ्रममूलक है ।
रतदेव (केवल) तो सात प्रकारके है:- पंचकल्याणयुक्त तीर्थंकर, तीन कल्याण संयुक्त तीर्थंकर दो कल्याण संयुक्त तीर्थकर, सातिशय केवली, सामान्यकेवली, अन्तकृत केवली, उपसर्ग केवली । - सत्तास्वरूप पृष्ठ २५
(३) दिगम्बर सम्प्रदाय में स्वर्गों की संख्या-विषयक दो मान्यताएँ उपलब्ध हैं। एक १६ वर्गोंकी और दूसरी १२ बर्गों की । और विवक्षाभेदको लिए हुए ये मान्यताएँ आजकी नहीं, किन्तु बहुत पुरानी हैं । ईसाकी ५वीं शताब्दी में भी पूर्व होनेवाले दिगम्बर आचार्य यतिवृषभनं भी अपने 'तिलोपपश्यन्ती' ग्रंथ में इनका उल्लेख किया है। इतना ही नहीं किन्तु स्वयं १२ बर्गीकी माम्यताका अधिक मान देते हुए 'मरांत के मायरिया' इस वाक्यके साथ सोलह स्वर्गो की दूसरी मान्यताका भी उल्लेख किया है. जिससे स्पष्ट है कि ये दोनों ही दिगम्बर मान्यताएँ रही हैं। वे उल्लेग्व इस प्रकार है:
सोहम्मीसा मणक्कुमार माहिंद बह्म लंतवया । महसुक्क सहस्मारा आायद पाणदाए चारणच्छुदया || एवं बारस कप्पा" | अधिकार ७ वां "सोहम्मो ईसायो सक्कुमारो तहेव माहिंदो । बझा-बझ सश्यं लंतब- कापिठ सुक्कमह सुक्का ॥ मदर-सहस्साराणदपायाद-धारणाय प्रच्युदया । इय सोलस कप्पाणि मगांते केइ आमरिया ॥ -अधिकार ७ बारह और सोलह स्वर्गोंकी इन दो मान्यताओं में इन्द्रां और उनके अधिकृत प्रदेशोंके कारण जो विवक्षा-भेद है उसका स्पष्टीकरण 'त्रिलोकसार' की निम्न तीन गाथाओंसे भले प्रकार हो जाता है
+ देखों पं० भाग चंदकृत भत्तास्वरूप पृष्ठ २६