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भनेकान्त
[ वर्ष ४
प्रदीपिकामें प्राकृतके दो निष्कर्षों और कुछ गद्यसूत्रादिके वृत्तिपरसे (साधन सामग्री लेकर ) लिखी गई है, जिसका
अतिरिक्त, संस्कृत और प्राइतके लगभग एकसौ पर उछ त परिचय हम आगे चलकर मालूम करेंगे, इसमें म० प्रबोधिकिये गये हैं। उनमेंसे अधिकांशके मूल स्रोतोंका पता लग काका पूरा पूरा उपयोग किया गया है और जैसे ही मं० सकता है, परन्तु टीकामें उन्हें बिना किसी नाम निर्देशके ही प्रबोधिका समाप्त हुई है जी०प्रदीपिका साफ तौर पर उन्द त किया गया है। जी० प्रदीपिकामें यतिवृषभ, भूतबलि, घोषणा करती है कि इसके प्रागे वह कर्णाटवृत्तिका अनुसमन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र. अभयचन्द्र सरण करेगी
और केशववर्णी जैसे कुछ ग्रन्थकारों का नामोल्लेखादि श्रीमदभयचन्द्रसद्वान्तचक्रवर्तिविकिया गया है और प्राचारांग, तत्वार्थविवरण, (प्रमेयकमल) ।
हितव्याख्यानं विश्रान्तमिति कर्णाटवृत्यमार्तण्ड जैसे कुछ ग्रन्थों १ का उल्लेख भी किया गया है। ज्योरेवार वर्णनों और श्रमपूर्वक तय्यार किये गये नकशों तथा
नुरूपमयमनुवदति१२ । सूचिपत्रों के कारण जी०प्रदीपिका उन अनेक विषयोंकी जान- संस्कृत जी०प्रदीपिकाका कर्तृत्वविषय प्रायः एक कारी प्राप्त करनेका एक बहुमूल्य साधन है, जो गोम्मटसार पहेली बना हुआ है। पं. टोडरमल्ल' 3जीकी मिम्न चौपाई में सुमाये गये और विचार किये गये हैं।
यह बतानेके लिये पर्याप्त है कि वे जी०प्रदीपिकाको केशवजी. प्रदीपिका कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है, वास्तव में
वर्णीकी कृति समझते थे।
केशववर्णी भव्यविचार कर्णाटक टीका अनुसार । इसका प्रारम्भिक पथ हमें स्पष्ट बतलाता है कि यह कर्णाट
संस्कृत टीका कीनी हु जो अशुन्द्र सो शुद्ध करहु ॥
उनकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' में अन्यत्र भी ऐसे उल्लेख ७ जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृष्ठ ६१, ११८० । मुझे
हैं जो इसी बातका निर्देश करते हैं। अनेक विद्वान, जिन्हें प्रो० हीरालालाजीसे मालूम हुआ है कि १०८० पृष्ठ पर का प्राकृत उद्धरण 'धवला' में मिलता है।
गोम्मटसारके सम्बन्ध लिखनेका अवसर प्राप्त हुआ है, इस कलकत्तासंस्करण, जीवकाण्ड पृष्ठ २, ३, ४२,५१, विचारको स्वीकृत एवं व्यक्त करचुके हैं। पं० यचन्द्रजी१८ १८२, १८५, २८४, २८६, २६०, ३४१, ३८२, ३६१, केवल इतना ही नहीं कहते कि संस्कृत जी०प्रदीपिका ५२३, ६८७, ६८८, ७३१, ७६०, ७६५,८८१,८८४, केशवव की कृति है. बल्कि एक कदम और आगे बढ़ते हैं ६५१, ६६५, ६६०, ६६१, ६६२, ६६३, ६६४, लिखते है कि जी. प्रदीपिकामें जिस कर्णाटकवृत्ति१००६, १००६, १०१७, १०२२, १०२४, १०३३, १०६७, ११४७, ११५५, ११६१, ११६७: कर्मकाण्ड
का उल्लेख है वह चामुण्डरायकी वह वृत्ति है, जिसका पृ० ३०, ५०, ७०८, ७१७, ७१८, ७२६, ७४२, उल्लेख गो०सार - कर्मकाण्डकी गाथा नं. १७२ में 'वीर ७४४, ७५३, ७८८, श्रादि ।
१२ जीवकाण्ड, कलकलासंस्करण पृ० ८१२ । १ माधवचन्द्रने गोम्मटमारमें कुछ पृरक गाथायें शामिल 13 जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृष्ठ १३२६, अन्यप्रकरणों
की हैं, इमलिये उमका इतना अधिक उल्लेख हुआ है। में भी उन्होने यह उल्लेख किया है, देखो जीवकाण्ड पृष्ठ १० जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण पृ० ६१६, ७६५, ६६३, ७५६ और कर्मकाण्ड पृष्ठ २०६६ ६४८, १७८, ३६, ७५२, आदि ।
१४ 'गोम्मटसार', कर्मकाण्ड, रायचन्द्र -जैन-शास्त्रमाला "जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण पृ० ७६०, ६६०, ६४६ । (बम्बई १६२८) भूमिका पृष्ठ ५
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