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________________ ५०८ अनेकान्त पर्वत पर विद्युद्दाम से शोभायमान और अनेक शिखरांसे सहित नवीन मेघोंकी माला, जलधागकी अविरल वर्षाक द्वारा उस दावानलको प्रशमित कर रही है- बुझा रही है, जिससे इस्ती दूरसे डरते हैं और जो अत्यन्त सन्तापरूप शरीर को प्राप्त है।' यह शिखरिणी छन्द है । इह कुसुमसमृद्ध मालिनीभूय सानो [वर्ष ४ यह पर्वत, फैलते हुए यशके समान किरनोंके द्वारा श्रापके समान अत्यन्त शोभायमान हो रहा है। क्योंकि जिस प्रकार आप जपाहिनरुचि है-- ध्यान में रुचिको लगाने वाले है उसी तरह यह पर्वत भी जपाहितरुचि है--जासौनके फूलोंसे शोभाको धारण करने वाला है। जिस प्रकार श्राप मनुष्यांके के कारण और मदन- दर्शनीय श्रर्थात् कामदेव के ममान सुन्दर शरीरको धारण करते हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी मदन-मैनारवृक्षांसे सुन्दर शरीराकृतिको धारण किये हुए हैं । और जिस प्रकार श्राप समीचीनमानस -हृदय-साहित हैं उमी प्रकार यह पर्वत भी सरोवर-महित है।' यहाँ पृथ्वी छन्द तथा श्लेषालंकार है । समकाञ्चनलोष्टमनुम्मनसं, सकलेन्द्रियनिग्रह बद्धरसम् । जिन तोटकमागमनस्य भवे, शिरसेष बिभर्ति तपस्विगम्३३ विपुलसकलधातुच्छेद-मेपथ्य- रम्यम् । वपुरपि रचयित्वा कुंजगर्भेषु भूषोविवयति रतिमिष्टः प्रार्थिताः सिद्धबध्यः ॥१२॥ 'पुष्पांस सम्पन्न इस शिखरपर सिद्धवधुएँ - देवागनाएँ लतागृह में अनेक पुष्पमालाश्रको धारण कर तथा शरीरको अनेक धातुखण्डों से सुरम्य बनाकर पतियां द्वारा प्रार्थना किये जाने पर रतिक्रिया करती है ।' यह मालिनी छन्द है । गनिमयम स्वामित्रस्मिन्मुनीन्द्रबने सदा स्मरबरतनो निस्योत्पुरा-प्रसून महीरुहे । रविकर - परीतापाच्छावामुपेश्य विसाध्वसा बसति हरियी सार्धं बध्वा कुरकृषोऽगम् ॥१५॥ 'हे कमल नयन ! हे कामदेव के समान सुन्दर ! हे स्वामि हमेशा फूले हुए वृक्षोंसे सहित इस तपोवन हरिणी, सूर्य की किरणां सन्तापसे छाया में जाकर निर्भय हो सिंहनी के साथ शोभायमान हो रही है - सिंहनी और हरिणी एक साथ बैठी हैं । परस्पर के विरोधी जीव भी यहाँ अपना वैरभाव छोड़ देते हैं।' यह हरिणी छन्द 1 अपाहितरुचिस्तनुं महनदर्शनीय मसौ जनप्रमदकारणं दधदुपातसम्मानसः । शोभिरिव निर्भर: प्रसरबद्भिरामात्पखं गरिकरुणालय ! त्वमिव देव पृथ्वीगुरुः ॥ १८ ॥ 'हे देव ! हे श्रेष्ठ दया गृह ! पृथ्वी पर महान विस्तीर्ण 'हे जिनेन्द्र ! यह पर्वत उन तपस्वियांक समूहको धारण करना है जो कि सुवर्ण और पत्थरोंमें मान बुद्धि रखते हैं, विषयोंकी उत्कण्ठा से रहित है ममस्त इन्द्रियांक निग्रह करनेमें तत्पर है और मंमारभ्रमणके छेदने वाले हैं। यह तोटक छन्द है 1 श्रष्टमसर्ग में जलक्रीड़ा, नवममें सूर्यास्त, संध्या तथा चंद्रोदय, दशममें मधुपान आदि, एकादश में भगवान् नेमिनाथके लिये श्रीकृष्ण द्वारा राजीमतीकी प्रार्थना, द्वादशसर्ग में बरातका जाना, त्रयोदशसर्ग में बद्ध पशुओं को देखकर नेमिनाथस्वामीका विरक्त होना तथा उनके पूर्व भवांका वर्णन, चतुर्दशसर्ग में केवलज्ञानोत्पत्ति तथा समवसरणका वर्णन और पंद्रहवें सर्ग में भगवान् के दिव्य उपदेशका वर्णन है । ग्रन्थकी समस्त वस्तु बहुत ही रोचक ढंगमे लिखी गई है - एकदम सरस और पण्डित्व से पूर्ण है। छोटेसे लेब में सबका उद्धरण करना अशक्य है । काव्यरसास्वाद के इच्छुकों को ग्रन्थ उठाकर उसका श्रध्ययन करना चाहिये ।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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