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________________ अनेकान्त [वर्ष ४ मगणे विहिणा घडिओ, कोविह पगावि विस्मसव्वगुणकाय इस पथमें भारमन्लके प्रतापका कीर्तन करने में अपनी सिरिमालभारमहोणं माणसथंभो णग्गवहरणाय।।१६५ अम्ममर्थना म्यक्त करते हुए लिखा है कि--'एक नौकरको यहां कविवर उपेक्षा करके कहते हैं कि ' मैं ऐसा मानता साथ लेकर एक करोड़ नककी रकम शाहके भंडारमें भरदी हूं कि विधाताने यदि विश्वकै सर्वगुण-समूहको लिये हए जाती थी--मार्गमें रकमके छीन लिये जाने प्रादिका कोई कोई व्यक्ति घडा है तो वह श्रीमाल भारमल्ल है. जो कि खतरा नहीं ! और एक कीनिं पढ़ने वाले भोजकीको मनुष्योंके गको हरनेके लिये 'मानस्तंभ' के समान है। दायिमी (स्थायी) दान तक दे दिया जाता था--ऐसा करते सिरिभारमल्लदिणमणि-पाय संवंति एयमगा। हुए कोई पशोपेश अथवा चिन्ता नही! (ये बातें भारमल्ल तमिदगितिमिरं णियमण विस्मद सिग्धं ॥ ५९|| के प्रतापकी सूचक हैं)। भारमल्लके प्रतापका वर्णन करने के लिय (सहजिह्न) शेषनाग भी असमर्थ है, हमारे जैसा एक इसमें बतलाया है कि--'जो एक मन होकर भारमल्ल जीभवाला केस समर्थ हो सकता है ? रूपी दिनकरकी पादमेवा करते हैं उनका दरिद्वान्धकार नियम अब छंदोके उदाहरणो में दिये हए संस्कृत पोंक भी से शीघ्र दूर होजाता है।' कुछ नमूने लीजिय, और उन परम भी गजा भारमालक प्रहसिनवदनं कुसुमं सुजममुगंधं सुदाणम दं। व्यक्तिस्वादिका अनुमान कीजियःतुब देवदत्रानंदन धावनि कविमधुपमणि मधुलद्ध।।११।। अयि विध ! विधिवत्तव पाटवं, __ यहां यह बतलाया है कि - 'देवदत्तनगदन-भारमरलका प्रफुरिजन मुख ऐमा पुष्प है जो सुयश-सुगंध और सुदान यदिह देवसुतं मृजन म्फुटं । रूपी मधुको लिये हुए है, इमीमे मधुलुब्ध कवि-भ्रमरोंकी जगान माग्मयं करुणाकरं, पंक्ति उसकी ओर दौड़ती --दानकी इच्छामे उसके चारों निम्लिदीनममुद्धग्गा क्षमं ॥५॥ मोर मँडराती रहती है। विधानातेरी चतुराई बड़ी व्यवस्थित जार परती षाण सुलिनान ममनंद हदभुम्मिया, है, जो तूने यहां देवसुत-भारमल्लकी सृष्टि की है. जोकि जगत में सारभूत है. करणाकी खानि है और सम्पूर्ण दीनजनोंका सज-रह-वाजि-गजगजि-मदघुम्मिया ।। उद्धार करनेमें समर्थ है।' तुम दरबार दिनरचि तुरगा गया, देवमिरिमालकुलनंद करिए मया ॥२५७॥ मन्य न देवतनुजा मनुजाऽयमव, इसमें खान सुलतान, मसनद और मजे हुए रथ-हाथी नूनं विधेरिह दयादितचेनमा वै। घोड़ोंके उस्लेखके साथ यह बतलाया है कि राजा भारमल जैविना (जीवन्त ?) हेतुवशना जगती जनानां, के दरबारमें दिनरात सुरक लोग प्राकर नमस्कार करते थे-- श्रेयस्तरुः फलितवानिव भारमल्लः ॥२५५।। उमका तांतासा बंधा रहता था। यहां कविवर उपेक्षा करके कहते हैं कि--'मैं ऐसा एक सेवक संग साहि भँडार कोडि भगिजिए, मानता हूँ कि यह देवतनुज भारमरल मनुज नहीं है, बहिक एक किति पढंत भोजिग दान दाइम दिजिए। जगतजनोंके जीवनार्थ विधाताका चित्त जो दयासे मादित भारमहल-प्रताप-वण्णण संसणाह असक्को , हुआ है उसके फलस्वरूप ही यह कल्याण वृक्ष' यही फला एकजीहम प्रो प्रमाग्सि कम हाइ ससक्का ।।२७०|| है--अर्थात भारमक्सका जन्म इस लोकके वर्तमान मनुष्यों
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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