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कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल
[ सम्पादकीय ]
(गत किरण से आगे )
(३) इस ग्रंथमें राजा भारमल्लको श्रीमाल चूडामणि, साहशिरोमणि, शाहसमान, उमानाथ, संघाधिनाथ, दारिद्र धूमध्वज, कीर्तिनभचन्द्र, देवतरु-सुरतरु, श्रेयस्तह, पतितपावन, चक्री - चक्रवर्ती, महादानी, महामति, करुणाकर, रोडर, रोरुभीनिकन्दन, जिनवरचरणकमलानुरक्त और निःशक्य जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया गया है, और उनका खुला यशोगान करते हुए प्रशंसामें-उनके दान-मान प्रतापादिके वर्णनमें- कितने ही पथ अनेक छंदोंके उदाहरणरूपसे दिये हैं। यहां उनमेंसे कुछ पर्योको नमूने के तौर पर किया जाता है 1 इससे पाठकोंको राजा भारमल्लके उधृन safederer और भी कितना ही परिचय तथा अनुभव प्राप्त हो सकेगा। साथ ही, इस छंदोविद्या- ग्रन्थके छंदोंके कुछ और नमूने भी उनके सामने भाजायँगे:अवणिगुणा पादप रे, बदनग्वगणा पंकज रे । गावराण गजपन रे, नैनसुरंगा सारंग रे । तनुरुहचंगा मोगरे, वचनप्रभंगा कोकिल रे । नमरण- पिय'ग बालक वे, गिरिजठर विदाग कुलिसं रे ।
घाघुतरे, हम नैनहु दिट्ठा चंदा रे । दाना विक्रम रे, मुख्य चवै सुमिट्ठा अमृत रे ।। १०७ || नन पादप-पंकज- गजपति सारंग- मोरा - कोकिल-बाल-तुलं, नन कुलिशं ग्घुपति चंदाना पति अमृत किमुत सिरीमालकुल
कसै गजराजि गरी श्ररिवाज अवाज सुराज विराजतु है, संघपत्ति सिरोमणि भाग्हमल्लु विग्द्द भुषप्पति गाजतु है || १०८ || इन पद्योंमें राजा भारमहलको पाइप, पंकज, गजपति,
सारंग (मृग), मोर, कोकिल, बालक, कुलिश (वज्र), रघुपति, चंद्रमा, विक्रमराजा और अमृतसे, अपने अपने विषयकी उपमामें, बढ़ा हुआ बतलाया है- अर्थात् यह दर्शाया है कि ये सब अपने प्रसिद्ध गुणोंकी दृष्टिसे राजा भारमल्लकी बराबरी नहीं कर सकते ।
बलि-वेणि विक्रम भोज रविसुत - परसराम समंचिया, हय-कनक कुंजर-दान-रस-जम बेलि प्रहनिससिचिया । नच समय सतयुग समय त्रेता ममय द्वापर गाइया,
भारमल कृपाल कलियुगकुलह कलस चढाइया | २७४ यहां राजा बलि, वेणि, विक्रम, भोज, करण चौर परशुरामके विषय में यह उल्लेख करते हुए कि उन्होंने घोड़ों, हाथियों तथा सोनेके दानरूपी रससे यश-बेलकों दिनरात सिंचित किया था, बतलाया है कि उनका वह समय तो सतयुग, त्रेता तथा द्वापरका था परन्तु आज कलियुगमें कृपालु राजा भारमने उन राजाओंके कीर्तिकुल गृह पर कलश चढ़ा दिया है--अर्थात दानद्वारा सम्पादित कीर्ति में आप उनसे भी ऊपर होगये हैं--बढ़ गये हैं। मिरिमाल सुवंसो हमि पसंसो संघन रेसुर धम्मधुगे, करुणामयश्चिशं परमपवितं ही विजेगुरु जासु वरं । हय कुँजर-दानं गुणिजन-मानं विशिसमुद्दह पारथई, दिनर्द नदयालो बयणग्मालो भारहमल सुबई । २८०
इसमें अन्य सुगम विशेषयोंके साथ भारमहलके गुरुरूप में हीरविजयसूरिका उल्लेख किया है, भारमलकी कीर्तिका समुद्र पार होना लिखा है और उन्हें 'सुचक्रवर्ती' बतलाया है ।