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किरण ५ ]
कविराजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल
को जीवनदान देने और उनका स्याण साधनेके लिये जिनके चरणकमल भूपतियोंसे सेवित है और स्वकीयविधाताका निश्चित विधान है।
जनोंकी दृष्टि-पंक्तिरूपी भ्रमरों के लिये भोगाभिराम है, और सत्यं जाड्यतमोहगेपि दिनकृजतोर्टशारप्रिय- जो इस, जगतमें महालक्ष्मीके निवासस्थान हैं, ऐसे ये चंद्रग्तापहगपि जाड्यजनको दाषाकगेशुक्षयी।
भारमस्ल मुमपर 'कृपाल' होवें।' निर्दोषः किल भाग्मल्ल जगतां नत्रोत्पलानंदकृ- पिछले दोनों पचोंमे मालूम होता है कि कविराजमाता चंदेणोध्याकरण संप्रति कथं तनापमयो भवन | | राजा भारमल्लकी कृपाके अभिलाषी थे और उन्हें बह प्राक्ष
'यह सच है कि सूर्य जडता और अंधकारको हरने भी थी। ये पच मात्र उसके स्थायित्वकी भावनाको लिये वाला है, परन्तु जीवोंकी प्रांखोंके लिये अप्रिय है-उन्हें हुए हैं। कष्ट पहुंचाता है। इसी तरह यह भी सच किचनमा (१०) जब राजा भारमख इतने बड़े बड़े थे तब उमसे तापको हरने वाला है, परन्तु जड़ता उत्पन्न करतात. दोषा. ईर्षाभाव रखने वाले और उनकी कीर्ति-कोमुवी एवं स्पाति कर है (रात्रिका करने वाला अथवा दोषोंकी खाऔर को सहन न करने वाले भी संसारमें कुछ होने ही चाहिये। उसकी किरणें पयको प्राप्त होती रहती हैं। भारमल इन क्योंकि संसारमें बदेखसकाभावकी मात्रा प्रायः बदी रहती सब दोषोंम रहिन है, जगजनों के नेत्रकमलोंको आनन्दित भी है और ऐसे लोगोंसे पृथ्वी कभी शून्य नहीं रही जो दूसरों करने वाला है । इसमे हे भारमल पाप वर्तमानमें चन्द्रमा के उत्कर्षको सहन नहीं कर सकते तथा अपनी दुर्जन-प्रकृति
और सूर्य के साथ उपमेय कैसे हो सकते हैं? आपको उनकी के अनुसार ऐसे बढ़े चढ़े सज्जनोंका अनिष्ट और अमंगल तक उपमा नहीं दी जा सकती--श्राप उनसे बढ़े चढ़े हैं। चाहते रहते हैं। इस सम्बन्ध कविवरके नीचे लिखे दो अलं विदितमंपदा दिविज-कामधेन्वाहयः,
पद्य उल्लेखनीय हैं, जो उक्त कल्पनाको मूर्तरूप देते हैं:कृतं किल ग्मायनप्रभृनिमंत्रतंत्रादिभिः ।
"जे वेम्मवग्गमणुषा गसिं कुब्धति भारमल्लम्स । कुनचिदपि कारणादथच पूर्णपुण्योदयात . देवेहि वंचिया बलु प्रभगावित्ता णग हुँति ॥१५॥" यदीह सुग्नंदनो ग(न) यति मां हि दग्गोचरं ॥२६५|| "चिंतन जे विचित प्रसंगल देवदत्तणयस्स ।
'किसी भी कारण अथवा पूर्णपुण्यके उदयसे यदि ते सव्वलायर्यादट्टा णट्टा पुग्दसलच्छिभुम्मिपरिचत्ता देवसुत भारमल्ल मुझे अपनी दृष्टिका विषय बनाते हैं तो
॥१६॥" फिर दिग्य कामधेनु श्रादिकी प्रसिद्ध सम्पदासे मुझे कोई पहले पचमें बतलाया है कि--'वैश्यवर्गके जो मनुष्य प्रयोजन नहीं और न रमायण तथा मंत्रतंत्रादिसे कोई भारमलकी रीस करते हैं -ईषोभावसे उनकी बराबरी करते प्रयोजन है--इनसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है उससे कहीं हैं--वेवसे उगाये गये अथवा भाग्यविहीन है, ऐसे लोग अधिक प्रयोजन अनायास ही भारमालकी कृपा रष्टिसे सिद्ध अभागी चार निधन हति।। होजाता है।
दूसरे पक्ष में यह स्पष्ट घोषित किया है कि--'जो वित क्षितिपतिकृतसंवं यस्य पादारविर्द,
में भी देवदापुत्र-भारमालका प्रमंगल चितम करते है निजजन-नयनालीभ्रंगभोगाभिगमं ।
सब लोगोंके देखते देखते पुर, देश, लक्ष्मी तथा भूमिसे जगति विदिनमेतद्भरिलक्ष्मीनिवासः,
परित्यक्त हुए नष्ट होगये हैं। इस पथमें किसी खास घाखोंभच भवतु कृपालाप्यष मे भारमल्लः ।।६।। देखी घटनाका उपशंख संनिहित जान पड़ता हो सकता