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________________ हरिभद्र-सूरि (ले०-५० रतनलाल संघवी, भ्यायतीर्थ-विशारद ) [ गत किग्ण श्रागे] समराइचकहा प्रशंसा की है। कालकाल-मर्व प्राचार्य हेमचंद्रसूरि हरिभद्र सूरिकी साहित्यिक-प्रवृत्ति चमुखी है। अपने कान्यानुशासनमे सफल कथाकं निर्देशक रुपम आप केवल श्रागमकं श्राद्य संस्कृत टीकाकार ममगइचकहाका नामाल्लेख करते है।। ही नहीं हैं, किन्तु मी अनुयांगों पर आपके समगइसकहाको सुनने, पढ़ने और इसकी नवीन प्रामाणिक प्रन्थ उपलब्ध हैं। दर्शनशास्त्रके नवीन नकलें-प्रतियां तैयार करवाने में सैंकड़ों वर्षों आप प्रगाढवत्ता और आध्यात्मिक ग्रंथांके दिग्गज तक महान पुण्य समझा जाता रहा है । जैन साधुविद्वान ना थे ही; किन्तु माथ माथ महान सिद्धान्त- ममुदाय और भावकवर्गसदा ही इस प्रेमपूर्वक, मचि कार, गंभीर विचारक एवं सफल कवि भी थे । इनकी के साथ पढ़ते एवं सुनत .हे हैं। यह क्रम आज भी कवित्व-कलाकं परिचायक अनक कथाप्रन्थ, चरित्र- उतनी ही रुचि और लगनकं साथ जारी है। निसंप्रन्थ और आख्यान आदि हैं। यद्यपि प्रापन कथा- दह जैन कथामाहित्यमें यह कृति सर्वोपरि कलश कोष, धूर्ताख्यान, मुनिपतिरित्र, यशोधरचरित्र, समान है। वीगंगदकथा और ममगइच्चकहा आदि अनक हरिभद्रसूरि ममगइचकहा, इम निम्नांत प्रा. कथापंथ और उपाख्यान-रत्नोंकी रचना की थी; ध्यात्मिक सिद्धान्तको सांगोपांग समझानमें पूर्णरीतिम किन्तु आज तो हमारे मामन केवल धूर्ताख्यान और मफल हुए हैं, कि क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, ममगइन्चकहा-ये दा ही उपलब्ध हैं । शेष नष्ट. द्वेष आदि मोहमय विकारोंसे प्रात्माकी क्या गति प्रायः हैं या नष्ट होगये होंगे। होती है ? और अहिंसा, क्षमा, विनय, निष्कपटता, समगइचकहा इनकी कवित्व-शक्तिका एक समु- सरलता, तप, संयम, सद्भावना, दया, दान श्रा ज्ज्वल प्रमाण है । इसके देग्यनस प्रतीत होता है कि मात्विक गुणोंसे प्रात्माका कैमा विकाम होता है । मानो कविका हृदय और कल्पना दोनों ही मूर्तरूप और अनमे कितनी जल्दी मुक्ति प्राप्त होजाती है ? धारण कर 'ममगइकच कहा' के रूपमें अवतरित विश्वके विचित्र प्रांगणमें घट्यमान घटनाओंको उपहुए हैं। प्रशमरसपूर्ण इस उत्तम कथाग्रन्थकी मभी न्यामक रूपमें सुन्दरीत्या चित्रण किया है। कहानी पश्चात्वर्ती विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे प्रशंमा की है। कलाका सामजस्यपूर्ण विकास और सौन्दर्य इस सुप्रसिद्ध कथाकार प्रद्योतनसूग्नि कुवलयमालाम, कथाके प्रत्येक अक्षर अक्षरमें और पृष्ठ पृष्ठ पर देम्बा महाकवि धनपालन तिलकमंजरोमे, देवचंद्रसूरिने जा सकता है । शान्तिनाथचरित्रमें इम कथात्मक काव्यकी भूरिभूरि समराडचकहाकी भाषा महाराष्ट्री जैन प्राकृत
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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