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________________ समाज-सुधारका मूल सोत (ले०-६० श्रेयांसकुमार जैन शास्त्री) अाज समाज-सुधारकी दुन्दुभि चारों ओर बज उन्हें मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञोंकी देखरेखमें रखकर रही है। हर एक कोनेसे उसकी आवाज आ रही है। उनके सर्वमुखी विकासकी व्यवस्था की जाती है । हर एकके दिमाग़में रह रहकर यह समस्या उलझन सचमुचमें मानव-जीवन और सामाजिक-जीवनमें पैदा कर रही है । पर असली समस्याका हल नहीं। शिशुका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। शिशु ही राष्ट्र हो भी क्योंकर ? जब निदान ही ठीक नहीं तो फिर की सम्पत्ति हैं, यह एक प्रसिद्ध बात है। पर उनकी चिकित्सा बिचारीका अपराध ही क्या ? समाज किसी भारतवर्ष में कैसी शोचनीय स्थिति है, शिशु-जीवनकी व्यक्तिविशेषका नाम नहीं, वह तो व्यक्तियोंका समुदाय किस तरह भयङ्कर उपेक्षा की जाती है, उनका जीवन है । समुदायका नाम ही समाज है। व्यक्तियोंसे रहित किस तरह पैरों तले रौंदा जाता है, उनके अमूल्य समाजका कहीं अस्तित्व ही नहीं । इसलिये व्यक्तिका जीवनको किस तरह मिट्टी में मिलाया जाता है यह सुधार समाजका सुधार है । जबतक व्यक्तिगत जीवन किसीसे भी छिपा नहीं है । इसका एक प्रधान कारण प्रगतिकी ओर प्रवाहित न हो तब तक समाजसुधार यद्यपि देशकी दरिद्रता अवश्य है, पर साथ ही माताकी आशा रखना कोरी विडम्बना है। अतः व्यक्ति- पिताकी अज्ञानताका भी इसमें मुख्य हाथ है; क्योंकि गत जीवन किस प्रकार सुधार की ओर अग्रसर हो हम कितने ही वैभव-सम्पन्न परिवारोंमें भी बालकोंके यह सोचने के लिये बाध्य होना ही पड़ेगा और इसके स्वास्थ्यका पतन तथा उनकी अकाल मृत्युकी घटनाएँ लिय व्यक्तिका मलजीवन अर्थात् उसका शिशुजीवन अधिक देखते रहते हैं। ऐसी हालतमें यह कहना होगा देखना होगा। कि शिशु-पोषणका वैज्ञानिक ज्ञान माता-पिताओंके आइय ! जरा शिशु-जीवनकी भी झांकी देखें। लिये परमावश्यक है । वस्तुतः शिशु ही मानव समाज हमारे देशमें शिशु प्रायः माता-पिताके मनोरञ्जनका का निर्माता है । उसकं सुधार पर सबका अथवा सारे एक साधनमात्र है और उसका पालन-पोषण भी उमी समाजका सुधार निर्भर है।। दृष्टिकोणसे किया जाता है। जबकि आज पाश्चात्य पर खेद है कि हमारे देशमें बाल-जीवनकी देशोंमें-संयुक्त राज्य अमरीका, इंगलैण्ड, रूस, समस्या पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता ! बालकों जापान, फ्रांस और जर्मनी आदिमें यह बात नहीं है। का पालन-पोपण भी समुचित और वैज्ञानिक ढंगसे वहां शिशुओंके पालन-पोषण और शिक्षण पर नहीं किया जाता। ६-७ वर्षकी आयु तक तो बालविशेष ध्यान दिया जाता है। उन देशों में शिशुओंके शिक्षणकी कोई खास व्यवस्था भी नहीं की जाती। सामाजिक जीवनमें एक महत्वपूर्ण स्थान है, वे समाज, उन्हें ६ या ७ वर्षकी अवस्थामें बाल-पाठशालाओं में के एक आवश्यक अङ्ग मान जाते हैं और उसी प्राथमिक शिक्षा-प्राप्तिके लिये भेज दिया जाता है, मान्यता के आधार पर उनके जीवन-विकासके लिये जबकि इससे पूर्वके ५-६ वर्षों में बालक माता-पिता वि .
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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