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________________ किरण ६-७ ] सयु० लेखपर उत्तरलेखकी निःसारता न्तराणां प्राहेनानां तु द्रव्यं पर्यायश्चेति द्विती(त)यमेव रहता है अत: आपका उक्त लिखना के संगत तत्त्वं--प्रतश्र द्विती(न)यमेव सद्यापदेशात' इत्यादि। हो सकता है, इस पर भाप म्बयं विचार करें। इस पाठमे 'तंत्रान्तगणां' 'आर्हतानां तु' यं वचन दूमरी बात जो आपने यह लिम्बी है कि 'गुणसूचित करते हैं कि यह गुणके अभावकी शंका प्रर्यवद्रव्यं' सूत्र नक मत्वार्थसूत्रमे 'गुण' के विषय तत्त्वार्थसूत्रके ऊपर की गई है और वह समस्त जैन में शं नहीं की गई है सो उसका जवाब यह है कि शासनको लक्ष्य में रखकर की गई है। ऐसी दशा में जिम जगह गुणकी बात तत्वायसूत्रमें पाती वहीं तो यदि अकलंक इस तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथम अतिरिक्त इस शंकाको अवकाश था। जैनों ने तो द्रव्यार्थिक, किसी अतिप्राचीन पर्ववर्ती प्रथा प्रगाण न देकर पर्यायार्थिक ये दो ही नय माने गये हैं, गुणार्थिक नय जिम पंथ पर टीका लिम्य रहे है उम प्रथका प्रमाण माना ही नहीं है । अतः जैनांके यहां तो इस शंका दत ना यह स्पष्ट भाक्षेप रहता कि हम ग्रन्थम पर्व का अवकाश किमी कालम भी संभवत नहीं हैं। जैनशासनमे 'गुण' का कथन न होनस दुसरे अन्य सभी जैन भेदाभेद-वृत्तिका 'लय हुए।पदार्थका निरूपण मंप्रदायकं प्रन्थोंम यहाँ 'गुण' शब्द लाकर किया करते है। क्या आपकी दृष्टि में श्वेताम्बरोंके यहां गया है। इस प्राक्षेपको गनम ग्यकर ही अकलकदेव भंदाभेदवृत्तिस अर्थात स्यावाद्की नीनिस पदार्थका ने यह समाधान दिया है कि जिममें शंकाकारको निरूपण नहीं है ? मग समझसे सो इम न्यायको वे शंका करनेकी फिर कोई गँजाइश ही न रहे। जब भी मानते है, आप न माने ता दूसरी बात है। वहाँका स्थल ऐमा है अर्थात गुणक विषयमें अन्य- अच्छा, आपने जो श्वेताम्बर मनमें 'गुण' (गुणार्थिक वादीका पाहतमन पर आक्षेप है तय 'उमो प्रन्थक नय) के विषयका मतभेद जिन प्राचार्योका बतलाया ऊपर किये गये प्राक्षेपका उत्तर नमी प्रन्थ द्वारा नहीं है नन प्राचार्योंका तथा वहांके इस विषयका निरू. किया जाता'-इत्यादि कथन जा मयुक्तिक मम्मतिम पण तो करिये, नथा पसका मंबंध तंत्रान्तगणां' लिग्या गया है वह पूर्णतया सुमंगत है। हाँ यदि और 'पाहतानां तु ये शब्द लेकर गजवार्तिक पाठ विशेषताको लिये हुए शंका न होती तो आपका इस के माथ मम्बद्ध करके बत नाईय कि यह शंका अम्य विषयका उत्तर ठीक समझा जाता-परन्तु यहाँ तो धर्मियोंका की हुई नहीं है किंतु श्वेताम्बर्ग जनोंकी स्पष्ट 'तंत्रान्तराणां' 'आईनानांतु' इन शलोंकी विशे- है। जब तक यह मब बात नहीं बनलायेंगे तब तक पताको लिये हुए शंका है, फिर यह कैम समझा जाय आपके वचन निर्हेतुक रूपमें कैसे प्रमाण मान जा कि आपने जो उत्तग्में लिखा है वह मत्य है ? आपने सकेंगे और कैसे यह समझ लिया जायगा कि व छलजो यह लिम्वा है कि-"गुण (गुणाथिकनय) हित सत्यताका लिये हुए हैं ? विषयमें कुछ श्वेताम्बर जैन आचार्यों का मतभेद भी भाग इमी प्रकरणकं दूसरे पेमें, "स्वयं सम्मति है" वह विलकुल निरर्थक है। क्योंकि जब गजवार्ति- लग्बकने 'तद्भावाव्ययं नित्यं' 'मंदावणुः' आदि कमें 'तंत्रान्तगणां' 'पाहतानां नु' ये शब्द स्पष्ट पार्य सूत्रोंके उल्लेग्यपूर्वक राजवानिकगत ऐम बहुनसं म्थलों जाते हैं तो जैनोंके यहांकी शंकाको स्थान ही कहाँ कोम्बोकार किया है जहां पूर्वकथित मिद्धि में प्रागेके
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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