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________________ ३९८ भनेकान्त [वर्ष ४ सूत्र उपन्यस्त हैं" इत्यादि वाक्योंको लिखकर मेरे प्रतिज्ञावाक्य अथवा प्राक्षेपके खंडनका जो प्रयास प्रतिज्ञावाक्य अथवा आक्षेपके खंडनके लिये जो प्रो० सा० ने किया है वह न मालूम किस विकृतदृष्टि प्रयास किया गया है वह कंवल उम विषयकी अजा- का परिणाम है ! नकारी या छल वृत्तिका परिणाम है । कारण कि, मालूम होता है सयुक्तिक सम्मतिमें मैंने जो जिन स्थलों को प्रो० साहबने चुनकर लिखा है उनमें प्रतिज्ञावाक्य 'जिस ग्रंथ पर राजवार्निक टीका लिखी सं कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जहाँ जिस प्रत्यके जारही है उसी प्रन्थकं ऊपर किये गये आक्षेपका ऊपर आक्षेप है उसका उसी ग्रंथकं उत्तर भागसं उत्तर' इत्यादि रूपस लिखा है उसका ठीक अभिप्राय समाधान दिया गया हो। उदाहरणकं तौरपर 'नित्या- ही उत्तरलेखककी समझ नहीं पाया है और इसका वस्थिताम्यरूपाणि' सूत्रकं गजवार्तिकमे आये हुए कारण यही है कि आप आवेशमें आकर जल्दबाजी 'तभावाव्ययो नित्यत्वं' इस वातिक नम्बर ०२ सं विना काई गंभीर विचार कियं चलता फिरता (पत्र १९७) के भाष्यद्वाग यह प्राशय प्रकट किया उत्तर लिखने बैठ गये हैं ! अच्छा, आपने मेरे लेखका गया है कि जो नित्यका श्रापको वानिक द्वारा लक्षण आगेका भाग न पढ़ा और न उद्धत किया तो न सही, किया जारहा है वह आपका मनगढंत लक्षण है या परंतु जो वाक्य प्रापन आक्षेप रूपस उद्धत किये हैं उसमें सूत्रकारकी भी सम्मति है ? ऐसी शंकाकी उनका भी जो अर्थ प्रापन समझा है वह क्या किमी मंभावनाको निवृत्यर्थ ही सूत्र कारक सूत्रको अकलंक- हालतमें हो सकता है ? उस वाक्यकं मतलबको जग दवन उपन्यम्त किया है। यहांपर शंकाका जो विषय है सद्बुद्धिस गौरकं साथ समझिये । यद्यपि उसका स्पष्टी और जो उसके समाधानका विषय है व दाना एक ही करण ऊपर किया जा चुका है फिर भी शब्दशः स्पष्टीकप्रन्थपर भाधार नहीं रखते अर्थात् जिस प्रन्थ पर ग्ण पाठकोंकी जानकारीके लिये इसलिये किया जाता है आक्षेप है उसी ग्रंथकं वाक्यद्वारा उसका समाधान कि उनपर आपके लेखकी असलियत और पोल भलीनहीं किया गया है । गजवार्तिकमें किये गये नित्यकं भांति खुल जाय । उन प्रतिज्ञारूपमर वाक्योंकास्पष्ठीकलक्षणपर शंका समाधानका उत्तर भकलंकने अपने रण यह है-जिम ग्रन्थपर अर्थात् प्रकृतमे तत्वार्थसूत्र वचनम प्रमाणता लानके लिये तत्वार्थसूत्रकं तद्भा. पर किये गये आक्षेप (गुणाभाव) का उत्तर (द्रव्यावाव्ययं नित्यं' सूत्रद्वारा दिया है। इसी तरह गज- श्रया निगुणागुणाः) उसी ग्रंथद्वाग नहीं किया जाता वार्तिक इसी १९७३ पृष्ठपर उक्त नित्यावस्थितान्य. -अर्थात् उसी ग्रंथका समझ कर वह 'द्रव्याश्रया रूपाणि' सूत्रकी तीसगे वार्तिकके विपयको लेकर निगुणा गुणाः' वाक्य प्रकरण में नहीं दिया है किंतु पाठवीं वार्तिक भाप्यम कालश्च' सूत्रको उपन्यस्त दूसरं ग्रंथकाससक कर दिया गया है । यद उसी ग्रंथ किया है वहाँ भी वृत्ति-विषयक शंकाका समाधान है, का उत्तर भाग समझकर यह वाक्य प्रमाणमें उद्धृत क्योंकि वृत्ति दूसरी वस्तु है और सूत्र दूसरी वस्तु है। किया जाता तो प्रन्थकर्तापर यह आक्षेप उपस्थित होता मतः यहां और नित्य लक्षणम उसी प्रन्थ पर किये कि गुणका लक्षण और 'गुण' ये दोनों इसी प्रन्थकर्ता गयेमाक्षेपका उत्सर उसी प्रथस न होने के कारण मेरे के द्वारा बनाये गये अथवा लाये गये हैं, जैन शासन
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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