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किरण ६-७]
सयु० सम्मतिपर लिखे गये उत्सरलेखकी निःसारता
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की वस्तु नहीं हैं किन्तु परमतम लायी गयी चीजें हैं। उत्तर' इत्यादि रूपसे मेरे प्रतिक्षा-चाक्यकी जो रचना ऐसा आक्षेप सूत्रप्रन्थ पर होना भयुक्त है, इसीलिए हैवह सर्वथा योग्य और निगपद है। मैने गजवातिकका प्राश्रय लेकर सयुक्तिक सम्मति इस मब कृत विषयका संक्षिप्त सार इes में जो यह लिखा है कि उसके लिए उम प्रन्थकं पूर्व- है-राजवार्तिकमें यह बात किसी स्थल में नहीं पाई बर्नी प्रत्यके प्रमाणको आवश्यकता होती है, वह मब है कि जिस प्रन्थ पर माक्षेप किया गया है उसका मेग लिखना न्यायसंगत है । क्योकि उसका स्पष्ट समाधान उसो प्रन्धके उत्तर वाक्यसं दिया गया हो। उत्तर ऊपर उधृत राजवार्तिकका पाठ ही बता दे इस विषयकं जा तीन स्थल बतलाये गये हैं उनमस रहा है। अतः मरा जो प्रतिज्ञा वाक्य है वह अखंड्य एकमें भी यह बान घाटत नहीं होती है। क्योंकि गुणहै और यथार्थ है।
विषयकी शंका तत्त्वार्थसूत्रक ऊपर है, उसका ममा___ यहाँ पर एक बात और भी नोट कर देने की है धान द्वितीय वार्तिकके 'महत्प्रवचनाहयादिषु गुणो.
और वह यह है कि-तत्त्वार्थमूत्रमें 'गुणपर्ययवद्रव्यं' पदेशान' इस अंश द्वारा सथा इस अंशकी "उक्त हि इस सूत्रसे पहले कही भी जैस 'गुण' का कथन या महत्प्रवचन-द्रव्याश्रयानिगुणा गुणाः' इति । नाम नहीं आया है उसी प्रकार 'पर्याय' का भी नही अन्यत्र चोक्तं 'गुण इति दळविधाणं' स्यादिव्याख्याआया है । ऐमी हालनमें शंकाकारने पर्याय-विषयक में उपन्यम्त हुए दूसरे बहियों वाक्यों द्वारा किया शंका न करके गण-विषयक शंका की तथा आगे चल गया है। और नित्य लक्षणका भाक्षेप गजवार्तिक कर यह कहा कि-श्राहेतमनमें द्रव्य और पर्याय के ऊपरका है उसका समाधान गजबार्तिकसं पृथक यंदा ही मान हैं गुण माना नहीं फिर 'गुणपर्यय- मूल ग्रंथ तत्वार्थ के सूत्रद्वारा किया गया है। मथा बदद्रव्यं यह कथन कैमाइस प्रकारको शंका इमी प्रकार द्रव्यांके पंचत्वकी शंका 'यूर पर सचित करती है कि शंकाकार पर्यायका कथन जैन उमा समाधान नत्वाथसूचकं 'कालश्च' सत्र नाग धममे पहलस मानता है, गुणका कथन पहलेमें नहीं किया गया है। ये तीनों स्थल राजवार्तिकम ऐसे हैं मातना। अतएव उमका उम 'गुणप दव्य' कि जिस ग्रंथ पर शंका की गई है उनके समाधान वाक्यक 'गुण' शब्दकं ऊपर शंका होगई परन्तु पर्याय- विषय दूमर ही ग्रंथ है। फिर नहीं मालूम इतना स्पष्ट विषयक शंका नहीं हुई। इससे भी पता चलता है कि कथन गजवार्तिकम होते हुए भी, उसी बातका उल्लंग्य उम शंकाका अभिप्राय गुणका लक्षण पूछना नहीं है सुयुक्तिक सम्मनिम होने पर एक प्रोफेसर जैसे जिम्मकित गुणका असदभाव द्योतन करना है। और उसका दार लवककेदाग ऐसा क्यों लिखा गया कि-"स्वयं ममाधान अकलंक द्वारा उमक (गुणके) सद्भावका- सम्मति-लेम्बकनं 'सद्भावाव्ययं नित्यं' 'भेदादणः' जैनशामनमें पहलेसे उमकी मान्यताका प्रतिपादन है, आदि मूत्रोंके उल्लम्ब पूर्वक गजगार्निकगत ऐसे बहुत
और पूर्व सद्भावका प्रतिपाधान उमी प्रन्थद्वारा नहीं में स्थलोंको स्वीकार किया है जहाँ पूर्वकथित सिरिमें बनता जिस पर कि आक्षेप और शंका होती हैं किंतु भागेकं सूत्र उपन्यस्त हैं" (अर्थात्-उसी ग्रंथपर किये उसका समाधान उसके पूर्ववर्ती दूसरे प्रन्थों द्वारा गये प्राक्षेपोंका ममाधान नमी प्रथद्वारा माना है और हो हा करता है। गजवातिकम यह सब विषय ऐसा होनस श्राक्षपमें जो प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है स्पष्ट है। यदि वहां पर वैमी बान न होती तो पर्याय चमका खंडन होगया) क्या यह जानबूझकर प्रसके विपयमें भी वैसी शंका अवश्य की जाती; परन्तु लियतपर पर्दा डालना, और दूसगेकी भाग्यों में धूल वह तो राजवार्तिकके द्वारा की नहीं गई है । अतः झांकना नहीं है ? प्रा०मा०का यह कृत्य कहांतकन्यायम्पष्ट है कि जिस प्रन्थ पर राजवार्तिक टीका लिखी संगत है इसका निर्णय सहदय पाठक स्वयं ही करें जा रही है उसी प्रन्थके ऊपर किये गये प्राक्षेपका तथा भास्करकं व मंपादकचतुष्टय भी करें जिन्होंने