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अनेकान्त
[ वर्ष ४
आती है वे खुद ही माम्प्रदायिक जान पड़ते हैं, क्यों गया है वह प्रा० सा० का प्रायः मनघडंत है और कि जो जैसा होता है समको वैमी गंध आया करती उससे ऐमा मालूम होना है कि या तो आपने सयुहै। परन्तु वेद है कि प्रा०मा० यदि मुझे माम्प्रदायिक क्तिक लग्बको पूर्णविवार नथा गौर के माथ पढ़ा ही ममझने थे तो उन्होंने अपना लंग्व मेरे पास मम्मति नहीं है, यों ही जल्दबाजी में आकर चलना-फिरना के लिये क्यों भेजा ? क्या लग्व को बिना पढ़े ही उटपटांग उत्तर लिग्ब माग है । अथवा मरे आक्षेपका अनुकूल मम्मनि दे दनके अभिप्रायम ही वह भेजा ठोक उत्तर आपके पास नहीं था, और उत्तर दनामात्र गया था ? अन्तु; आपने मेरे लग्बके उत्तर माथ जो आपको इष्ट था; इमलिय मेरे श्राक्षपको अपने माँचे कुछ मम्मतियां प्रकाशित की हैं वे मब युनिशून्य में ढालकर आपने उत्तर लिम्बनेका यह ढोंग किया है। तथा आपकी प्रेरगापूर्वक लिवाई होनम इस विषय इमीम उम सयुक्तिक सम्मति के "अनः पं०जुगलकिशोर में बंकार हैं; क्योंकि निर्णयान्मक विपयमें युक्तिशून्य जीने नं० १ के संबंध जो समाधान किया है वह मम्मतियाँ विद्वदृष्टि में प्रामाणिक नहीं गिनी जानी; जैनेनर (अन्यधर्मी) के प्राक्षेप-विषयक गजवानिकपं. महेन्द्रकुमारजीने जो अपनी मम्मतिम न्याय- मूलक शंकाममाधान के विपयको लिये हुए उत्तर है" कुमुदचन्द्र द्वितीय भागकी प्रस्तावनाकी बान लिम्बी है इत्यादि बहुनम वाक्यों को, जो मेरे प्राक्षपके अङ्गभून उसके मामने आने पर उसका विचार किया जायगा। थे, छोड़कर श्राप उत्तर लिम्बन बैठ गये हैं ! यह नीति दमर मरे 'सयुक्तिक सम्मति' लेग्य पर पं० सुमेरचंद्र आपकी 'नापाक हा ना मन पढ़ नमाज़' इस वाक्य जीकी सम्मान मग बिना प्रेरणाक ही जैनगजटमें मंस 'नापाक हो ना ये शब्द दोड़कर कंवल मन पढ़ प्रकाशित हुई है उस भी श्राप पढ़लें । प्रेरणा करके नमाज'को लेकर उसका ग्बगड़न करने अथवा अपने यदि सम्मतियां इधर प्रकट कराई जायँ तो सैंकड़ों अनुकूल उपयोग करने जैमी है, और इमलिय की तादादमें मिल सकती हैं, परन्तु हमको मात्र छलका लिये हुए जान पड़ती है। इसके लिये अन प्रेरणात्मक खशामदी सम्मतियों की अभिलाषा नहीं कान्त वर्ष ४ किग्गा १ के पृ० ८६ पर दिय हुए मरे है, यहाँ तो युक्तिवादकी अभिलापा है। अतः मे आक्षेपको और जैनसिद्धान्त भास्कर भाग ८ किरण आपको और आपकं सम्मतिदाताओंकी युक्तिपूर्ण १ पृष्ठ ४४ पर दिये हुए उसके प्रोफेसरीरूप तथा सम्मतियां चाहता हूँ; क्योंकि विद्वदृष्टि इसी बात उत्तरको सामने रग्यकर यदि पढ़ा जायगा तो पाठकों की इच्छुक है।
को मालूम पड़ जायगा कि तथ्यानथ्य क्या है ? अम्नु । अब श्रापकं उत्तरलेखका कलेवर किस युक्तियुक्त इस विषयमे प्रा०मा० उत्तरकी जो निस्सारता है अन्तस्तत्वकी गहगईको लिये हुए है उमका विचार वह यह है कि-मुद्रित राजवानिक पत्र २४३पर 'गुणकरते हुए उसकी निःसारताको व्यक्त किया जाता है- पर्ययवद् द्रव्य' इम सूत्र-सम्बंधी जो दूसरी वार्तिक (१) महत्प्रवचन और महत्प्रवचनहृदय "गुणाभावादयुक्तिरिनिचेन्नाहत्प्रवचनहृदयादिषु गुणो
इस प्रकरणमें सयुक्तिक सम्मतिके मेरे आक्षेपको पदेशान" इस रूपमें पाई जाती है उसके भाष्य में जो रूप देकर उसका उत्तर लिग्यनेका प्रयत्न किया अकलंकदेव लिखते हैं कि-"गुणा इति मंझा नंत्रा