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________________ किरण ६-७ ] तक दूसरी तरफसे प्रत्युत्तर न आ जाय तब तक कांधा वेश कर अपनी सर्वेसर्वा सत्यपनकी डीग माग्ना व्यर्थ है । विद्वद्द्द्दष्टिमं जो तत्व निर्णय विषयक लेख लिम्बे जाते हैं उन पर विचार-विनिमय होनेसे ही तत् निर्णय होना है। विचार-विनिमयमे यदि क्राधकी मात्राका समावेश होजाय तो वह विचार विनिमय नहीं रह जाता किन्तु वह तो अपनी गंध को लिये हुए एक आज्ञ'सी हाजाती है कि जो हमने लिखा है वह ही माना जाय: परन्तु ऐसी बातें नवनिर्णय बाधक हैं। पं० जुगलकिशोर जीने न मुझने अपने लेख पर कोई सम्मति मांगी है, न इस विषय की जानकारी के लिये मुझे कोई पत्र ही लिखा है और न मंगे सम्मतिकां अपनी श्रग्सं 'मयुक्तिक' ही बतलाया है; जैसाकि प्रो० साहब उनपर मिध्या आरोप करते हुये लिम्बते हैं । 'सयुक्तिक' विशेषण मेरा खुदका प्रयुक्त किया हुआ । हां. पं० नाथूरामजी प्रेमीने एक दिन मुझसे पूछा था कि अनेकान्त में तस्वार्थमूत्र के विषय को लेकर जो लेखमाला चल रही है वह देखी है क्या ? मैंने उसके उत्तरमे कहा कि जब अनेकान्न मेरे पास आता ही नहीं तो क्या देखूं । इस वार्तालाप के बाद पं० परमानन्दजी शाखीका मेरे पास एक पत्र आया, उसमें लिखा था कि अनेकान्न सम्बन्धी तत्त्वार्थसूत्र की चर्चा पढ़ी होगी उसके विषय में आपका क्या अभिप्राय है । जिस दिन यह पत्र मेरे पास आया था उस दिन पं० नाथूरामजी प्रेमीक साथ प्रो० महाशय भी सरस्वती-भवनमें पधारे थे, और वे इसलिये पधारे थे कि राजवानिककी कोई पुरानी हम्नलिग्विन प्रति ऐमी मिल जाय जिसमें कि पं० जुगल किशोर जीके लेखके विरुद्ध कोई बात हाथ लगे । परन्तु मग्भ्वतीभवनमें वैसा कोई प्रति न होनेसे 'श्रुतमागरी' और सयु० लेम्बपर उतरलेवकी निःसारता ३६५ 'तस्वार्थ सूत्र पर प्रभाचन्द्र-टिप्पण' ये दो ग्रन्थ उनको दे दिये थे, तथा पं० परमानन्दजीके पत्रकं विषयकी बात भी उस समय आगई थी। उस विषय को लेकर हँसते हुए प्रो साइबने वहा था कि बिना पढ़े ही सम्मति दे डालिये ! इसके उत्तर में मैंने यह ही कहा कि बिना पढ़े भी कहीं सम्मति दी जाती है ? प्रस्तु हँसते हुए चले गये और कुछ दिन बाद उन्होंने अपना लेखाङ्क (३) सम्मति के लिये मेरे पास भेजा । मुझे जैसी सम्मति सृमी वह लिखकर अनेकान्त मे छपने को भेज दी । इस सब वृत्तान्तकं लिखनेका अभिप्राय सिर्फ इतना ही है कि पं० जुगल किशोरजीन मुझसे अपने लेबों पर कुछ भी सम्मति नहीं माँगी है किन्तु प्रो० महाशयन ही सम्मति माँगी है। अतः आपने जो यह लिखा है कि- "पं० जुगलकिशोरजीन प्रस्तुत चपर विद्वानोंकी सम्मति छापनेका श्रीगणेश किया है। अब यदि मैं भी यहाँ कुछ विद्वानोंकी सम्मति प्रकाशित कर तो अप्रासंगिक न होगा ।" वह म लिम्बावट कटाक्षमय इस बात की सूचक है कि पं० जुगलकिशोरजी प्रेरणा करके अपने प्रस्तुत चर्चा के विषय पर सम्मतियां मँगा रहे हैं और उसका 'मयुक्तिक सम्मति' में श्रीगणेश कर दिया है। परन्तु मुझे तो अपनी सम्मतिके बाद कोई ग्यास सम्मति उनके लेख पर ऐसी देना नहीं मिली जोकि खास उसी विपयको लिये हुए हो और जिससे यह जाहिर होता हो कि सम्पादक अनेकान्त उस विषयका कोई स्वाम प्रयत्न कर रहे है। और मैंने जां सम्मति भेजी है वह अमलियन में उनकी प्रेरणाका कोई परिणाम नहीं है। किन्तु प्रो० मा० की प्रेरणा के निमिसको पाकर सत्य क्या है इस विषय की युक्ति पुग्म्सर चर्चाका लिये हुए है । मेरे लम्ब में साम्प्रदायिकता की जिनका गंध
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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