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________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता (लेखक-५० रामप्रसाद जैन शात्री) जैनसिद्धान्त भाकर भाग ८ किरण १ मे प्रा० क्तिक मम्मति' लेग्यकं एक टिप्पणमें (पृ० ८६ पर) जगदीशचन्द्रका तत्वार्थभाष्य और अकलंक' नामका माफ सूचित करते हैं कि-"यह लग्य' 'प्रो० जगदीश एक लम्ब निकला है। वह लेग्य अनकान्त वर्ष ४ चन्द्र और उनकी ममीना' नामक मम्पादकीय लेग्य किरण १ में मेरे द्वाग लिखे गये 'सयुक्तिक मम्मति' के उत्तरमें लिखा गया है, और इसे अनेकान्तमें लग्बका प्रतिवाद है। उम लग्वमे सयुक्तिक सम्मतिको प्रकाशनार्थ न भेजकर श्वेताम्बर पत्र 'जैनमत्यप्रकाश' जो 'युक्तिविहीन' और 'भ्रमात्पादक' बतलानका में प्रकाशित कराया गया है।" इस संपादकीय टिप्पण माहस किया गया है वह एक निःसत्व लोकातिक्रमिक में अच्छी तरह स्पष्ट होजाना है कि लंग्वकने अनमाहम है। लग्बमे लंग्वकन पहले तो अनेकान्त-मंणदक कान्त-संपादकके ऊपर मो आक्षेप किया है वह पर अपने अमत्य और घृणित य उद्गार प्रकट किये बिलकुल अमन्य है और लोगों का भ्रम पैदा करने हैं कि-"अपन विरुद्ध मयुक्तिक लम्वोंको ता अन- वाला वाग-जाल है । प्राग चलकर प्रा०मा० ने बिना कान्तमें छापनके लिए भरसक टालमटोल की जाती है विचारे ही जो यह लिख दिया है कि-"लेग्याङ्क (३) और पत्रोंका उत्तर तक नहीं दिया जाता तथा इम को अच्छी तरह नहीं पढ़ा और जल्दीम श्राकर वे तरहकं युक्तिविहीन भ्रमात्पादक लखोंको मयुक्तिक मम्मान देने बैठ गय" वह न मालूम किम आधारको बताकर अपनी 'वाह वाह की घाषणाकी जाती है।" लिये हए है, जबकि श्रापक उक्त लेम्बाङ्क (३) की सभी वास्तवम दग्बा जाय तो लग्बकका इस प्रकार लिखना चर्चाका मयुक्तिक मम्मतिमे विस्तारसं बंडन है। एक क्रांध वृत्तिको लिए हुए है और अमत्य भी है। हॉ, यदि आपने उम अम्वीकार कर दिया तो उसका कांधवृत्ति तो उक्त लिखावटसं टपकी पड़ती है और अर्थ क्या यह होगया कि लग्वाङ्क (३) पढ़ा ही नहीं? अमका कारण यह है कि-प्रा० मा० के मब लेखों नहिं मालम यह कैमी विचित्र आविष्कृति है ! इसके पर पानी फेरने वाली 'मयुक्तिक मम्मनि' अनेकान्तमे आगे मयुक्तिक मम्मनि लग्वकं लग्वककी दलीलोंको जो प्रकाशित होगई, इमसे आपको मार्मिक दुःग्य पहुँच हास्यास्पद' लिग्ब माग है वह तो अपने दिल के कर क्रोध हो पाया। और असत्यपना इममं प्रकट फफोड़े फोड़न जैमा ही कार्य जान पड़ता है। क्योंकि है कि-जब अनेकान्तमें आपके कई लेख प्रकाशित उन दलीलोकं खंडन के लिय आपने नाप्रयाम किया है होगये है और प्रकाशित न करनकी जब कोई सूचना उसकी मारता या निम्मारता इम लेख द्वारा प्रमाणित संपादकजीकी नरफ आपके पाम नहीं गई है तब होनस लेम्बककी हास्याम्पदता या अहाम्याम्पदना 'मयुक्तिक लेग्यो को न छापनेका' आरोप लगाना कहां स्वयमेव ही प्रकट हो जायगा । अतः उसके लिये जब तक सत्य है, यह सब ममझदारोंकी समझसे बाह्यका १ लेखाङ्क नं. ३, जिमरर मेरी अंरसे 'सयुक्तिक मम्मनि' विषय नहीं है। बल्कि अनकान्तक मंपादक तो 'सयु. निग्वी गई।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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