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अनेकान्त
[वर्ष ४
लोकनामसं मशहूर है, 'वप्पट्टि' सूरि के साथ इतना साथ ही, यह भी प्रगट होता है कि गजा प्रामके घनिष्ठ संबंध रहा है जितना चाणक्य और चंद्रगुप्तका वंशज १६ वीं मदी तक चित्तौड़में मौजूद थे। थी। बप्पभट्टि सूरिके उपदेशसं इस नरेशने श्रावकके राजा प्रामका पौत्र और दुन्दुकका पुत्र गजा भोजदेव व्रत ग्रहण किय, कन्नौजमें १०१ गज प्रमाण जिन था। देवगढ़कं वि०म० ९१८ के शिलालेखमें भोज मंदिर बनवाया, उसमें १८ भार सुवर्णमयी प्रतिमाकी का नाम आता है । 'पुगतन प्रबन्धसंग्रह' (पृ०२) प्रतिष्ठा कराई और ग्यालियरमें २३ हाथ ऊँचावीर प्रभुका में भोजदेव और सुभद्राका वृत्तान्त पाया जाया है। 'मंदिर बनवाकर उसमें लेप्यमयी प्रतिमा विराजमान भाजदेव जैनधर्मानुयायी और वप्पट्टिसूरिके गुरु
की तथा शत्रुजयतीर्थकी यात्राथ एक संघ भी भाई श्रीनमसूरिका परमभक्त था । इसने उक्तसूरिजी निकाला, जिसमें दिगंबर और श्वेताँबर दानों सम्मि- के पास श्रावक व्रत लिये और तीर्थयात्रार्थ संघ भी लित थे । ग्वालियर प्रशस्तिस ज्ञात होता है कि आम निकाला। राजाने अनेक देशोंपर अपना प्रभुत्व जमाया था। बप्पभट्टिसूरिका जन्म वि० सं० ८०७ में और इस राजाका स्वर्गवास विक्रम सं०८९० में हुआ था। स्वर्गवास ८९५ में हुआ है। ये तत्कालीन विद्वानोंमें राजा आमने एक वणिक-कन्यास विवाह किया था, उच्च श्रेणिक माने जाते थे। प्रभाषकचरितके उल्लेजिसकी संतान कोष्ठागरिक (कोठारी) कहलाई और स्वानुमार इन्होंने बहुतसे प्रबंध निर्माण किये थे, बादका पोसवाल वंशमें मिल गई । चित्तौड़-वासी परन्तु वर्तमानमें इनकी कृतिस्वरूप 'सरस्वतीस्तोत्र' सुप्रसिद्ध कर्माशाह भी इसी वंशका था, जिसन और 'चौबीम जिनम्तवन' ही उपलब्ध हैं। वि० सं० १५९७ में शत्रुजय सीर्थका उद्धार एवं प्रतिष्ठा राजशेग्वग्सूरिक 'प्रबंधकोष' में उल्लेख है कि कराई, ऐसा 'शत्रजय' लखो. सनात होता है. आम राजाने गापगिरि (ग्वालियर) वर्ती स्वनिर्मापित
वीर प्रभुके मंदिर में जब नमस्कार किया तब सूरिजीन ६-पूर्णवर्णसुवर्णाष्टादशभारप्रमाणभूः ।
भीमतो वर्षमानस्य प्रभोरप्रतिमानभूः ॥ १३७ ।। "शान्तो वेषःशमसुखकला" इत्यादि ११ पद्यात्मक निरमाप्यथ संप्राप्यागण्यपुण्यभरैर्जनैः ।
स्तोत्र रचा, जो १५ वीं सदीतक पाया जाता था। धार्मिकाणा संचरन्ति प्रतिमा प्रतिमासनम् ॥ १३८॥ लक्षणावतीकं नरेश 'धर्मराज' को प्रबोधकर इन्होंने भीवपट्टिरेतस्या निमे निर्ममेश्वरः ।
उस जैन बनाया, और बौद्धबादी 'वर्धनकुंजर' को प्रतिष्ठां स प्रतिष्ठासुः परमं पदमात्मनः ॥ १३ ॥ तथा गोपगिरी लेप्यमयबिम्बयुतं नृपः।
बादमें परास्त करके धर्मगजकी सभा 'वादिकजरभीवीरमंदिरं तत्र त्रयोविंशतिहस्तकम् ॥ -प्रभावकच. केशरी'का महापद प्राप्त किया। मथुरामें इन्होंने प्रतिष्ठा -इतब गोपाहगिरौ गरिष्ठः श्रीवप्यभट्टिप्रतिबोधितश्च । भी कगई थी। ये जैनसाहित्यमें 'राजपूजित' कहलाते श्रीश्रामराजोऽजनि तस्य पत्नी काचिद् बभूव व्यवहारिपत्री८ . तत्कुक्षिजाता किल राजकोष्ठागाराहगोत्रे सुकृतकपात्रे। :-सित्तुजे रिसह, गिरनारे नेमि, भरुअच्छे मुणिमुव्वयं, भीग्रोसवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमी पुरुषा:प्रसिद्धा: मोढेरए वीरं, महुराए सुपास-पासे, घडिश्रादुगन्भंतरे इहि-सूरिणा अट-सय-छब्बीसे (८२६ । कमसंवच्छरे नमिना, सोरटे दुंदणं, विहरित्ता गोवालगिरिम्मि, जो भीवीरवि महुराए ठावि अं ।
भुजेह । तेण श्रामराजसेविअकमकमलेण सिरि-वय