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________________ प्रो० जगदीशचन्द्रके उत्तर- लेखपर सयुक्तिक सम्मति (ले० - श्री पं० रामप्रसाद जैन शास्त्री) श्रीमान् प्रोफेसर जगदीशचंद्रजी जैन एम० ए० 'वार्थमा और अकलंक' नामका अपना लेख नं० ३ भेजकर मुझे उसपर सम्मति देनेकी प्रेरणा की है। तदनुसार मैं उसपर अपनी सम्मति नीचे प्रकट करता हूं । साथ ही, यह भी प्रकट किये देता हूँ कि उक्त लेख नं० ३ से पूर्व के दो लेख मेरे देखने में नहीं आये. अतः इस तृतीय लेखांकपर जो सम्मति है वह उस मूलक ही है और उसीकी विचारणा पर मेरी निम्न लिखित धारणा है । (१) अर्हत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय इस प्रकरणको लेकर पं० जुगलकिशोरजीका जो गजवार्तिक- मूलक कथन है वह निर्भ्रान्तमूलक इस लिये प्रतीत होता है कि - जिम ग्रंथपर राजवार्तिक टीका लिखी जारही है उसी ग्रंथके ऊपर किये गये आपका उत्तर उसी ग्रंथद्वारा नहीं किया जाता, उसके लिये उम ग्रंथके पूर्ववर्ती ग्रंथके प्रमाणकी आवश्यकता होती है । अतः पं० जुगलकिशोरजीने नं० १ के सन्बन्ध में जो समाधान किया है वह जैनेतर (अन्यधर्मी) के आक्षेप - विषयक राजवार्तिकमूलक शंका-समाधान के विषयको लिये हुए उत्तर है। उसमें 'गुणाभावादयुक्ति:' इम वाक्यद्वारा जिस शंकाका * यह लेग्व 'प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा' नामक सम्पादकीय लेखके उत्तर में लिखा गया है, और इसे 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ न भेजकर श्वेताम्बर पत्र 'जैनसत्यप्रकाश' में प्रकाशित है। कराया गया -सम्पादक निर्देश किया गया है उसीका समाधान 'इतिचेन्न' इत्यादि वाक्यसे किया गया है। दूसरी शंका यह उठाई गई थी कि यदि गुग्गा है तो उसके लिये तीसरी गुणार्थिक नय होनी चाहिये - उसका भी शास्त्रीय प्रमाण 'गुण इतिदव्वविधानं' इत्यादि गाथा द्वारा दिया गया है - अर्थात् कहा गया है कि गुण और द्रव्य अभेदविवक्षासे एक ही पदार्थ हैं, इस लिये तीसरे नयकं माननेकी जरूरत नहीं है। इस प्रकरण में 'अर्हतप्रवचन' या 'अर्हतप्रवच हृदय' कौनसा शास्त्र है ? बाबू जगदीशचंद्रजीका मत तो इस विषय में ऐसा है कि - सूत्रपाठ और उसपर जो श्वेताम्बरमान्य भाष्य है, ये दोनों ही उन शब्दोंस लिये जाते हैं। परन्तु पं० जुगल किशोर जीकी मान्यता यह है कि दोनों में से एकको भी 'अर्हतप्रवचन' या 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामसे उल्लेखित नहीं किया गया है । विचारपूर्वक देखा जाय तो इन दोनों पक्षों में बाबू जुगलकिशोरजीका मानना ही ठीक प्रतीत होता है। कारण कि राजवार्तिकमें जो गुणको लेकर शंका उठाई गई है वह 'आर्हतमत में गुण नहीं है' ऐसे शब्दोंस उठाई गई है, उसका समाधान जिस सूत्रके द्वारा दिया गया है वह कोई प्राचीन ग्रंथका ही संभा वित होता है। क्योंकि परपक्षवादी के लिये जिस ग्रंथके सूत्रपर आक्षेप है उसी ग्रंथके सूत्र से उसका समाधान युक्तिसंगत मालूम नहीं होता । तत्वार्थसूत्र के नामसे तो दोनों सम्प्रदायके ग्रंथ एक ही हैं—पाठभेद भले ही हो, पर नामसे तथा पाठबाहुल्यसे तो समानता ही
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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