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________________ किरण ५ युवराज हमंशाम ही मन्दिग्ध-स्वभावकी हानी आई हैं ! या. 'स्पलका' का सांपन काटा । निर्जन-पथ । माथ यों कह लीजिए कि उनके ऊपर ज़िम्मेदारी होती है. म दुग्विया नारी। क्या कर सकती थी ? उसकी गृहस्थी की. इसलिए उन्हें वैमा बनना पड़ता है ! अक्ल ना वैसे ही बिगड़ी हुई थी । वह मर गईकुछ मही. अक्सर इस मामलम मासु गलनियाँ कर गम्तमें ही। बैठनी हैं-इनिहाय इसका गवाह है। मित्रवनी अकली। यहमियन मासकं धृमान भी एक ग़लती की- माथमं गर्भ । बच्चे का भाग्य । रमन मित्रवनीका दुगचारिगी समझ लिया ! मन वह बढन-बड़न क्रांचपुर के जंगलम भाई । थकी. जाग्य कहा-सुना. पर फिर सुनना कैमा ? शायद यह मांदी, प्रसव पीडाम दुःग्वित । .. म्नीम्वभाव है-जा महम निकल गया. समीकी पुष्टि बच्चा नन्मा । वह अपनी नज़म्म भी फिर ठीक मालम नदव भी एक बार उसकी ओर देवा-हमरन-भग निगाह दाचार दिन घरमें कलह रही, नख चम्ब चली. में, ममनाकी दृष्टि में । मह चूमा । और धीरे-से कहा गना-पीटना पहा । घरके मामले में मंटनी क्या दम्न- - बटा. मंग।' न्दाजी कर सकते थे १ प्राधिकार था धूमा पाम! और फिर बांग्याम ओम भर लाई। बागपत्नी (फा अधिकार का उपयोग करना कौन लोड़ देता है- -परिचर्याक लिए कोई नहीं । श्राह, भाग्य । अपन वक्त पर सुबह हुश्रा । बालकको गन्न-कम्बलम लपेटकर __ उमन मित्रवनी निकाल दिया-घरने ! हिन्द नटपर रग्बा, श्राप कपड़े धान के लिए जलाशयमे गई। म्बिया मदाम शायद टमी तरह निकाली जानी रही देर तक धानी रह।। है। धाड़ा-सा हम भी किया कि एक दामी मात्र करी-उत्पलका ! कह दिया-'लनादन पाम. भू ठनक टुकड़ा पा गुज़र करनवाल हमेशा इसके पिनाक घर इम पहुँना श्राा ग्यानकी नलाशमं घुमा-फिरा करने हैं। कुन ने दग्वापंश्चनी स्त्रियों की बान जान दीजिये ! जो वैमी 'शायद कुछ ग्वाना होगा पाटली में । नहीं हैं. वे इस कलंकको लकर क्या पिनाक घर लपका । पाटली मामन थी-गवने वाला कोई जाना पसन्द कर सकती है ? इसका एक ही उर था नहीं वहाँ । पूर्ण स्वतंत्रता थी ले भागनकी । हा मकना है-'नहीं ! झिझक छोड़, महमें दबा ले दौड़ा।.. और वही मित्रवीन किया ! वह पिताके घर न भंड़ पर ऊन कोई नहीं देख मकता, ग़रीब पर गई. न गई ! वह यों ही बढ़नी गई-मार्ग पर । भाग्य धन । कुरो पर यह बहमूल्य-कम्बलकी पाटली कौन का भगमा थाम । पर भाग्य था उमवन रूठा हुआ। छोड़ मकना था ? दुग्यके वक्त दुग्व ही आना है, सुग्व नहीं ! शायद लोगोंने उलयाली । बालकर देखी गई नो सुन्दर श्राने घबड़ाना है । दुग्यम मुमकिन है, दृभगकी नरह, मलौना बच्चा । महागज यक्ष ऊपर ग्वड़े दंग्य रहे थे, वह भी डरना हो! महागनी भी बड़ी थी पाममें । इशाग किया गया। x
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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