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________________ किब-७] जीवनकी पहेली ३७५ इस प्रकार इनकार द्वारा ये समस्याका महजमें ही संभव था। उपबंधन तो करना चाहते हैं. परन्तु ये उसका उल्लंघन नहीं जो सर्वथा प्रसस्य है, उसकी कोई भी प्रतीति नहीं, कर पाते । इस प्रकार धारणा-द्वारा ये शंकाओंको पीछे तो कोई भी भ्रान्ति नहीं, कोई भी निश्चित नहीं । प्रान्ति छोड़ना चाहते हैं, परन्तु शंकाएँ इनका पीछा नहीं छोड़नी, और निश्चिति उसीकी होती है, जो किसी प्रकार सत्य हो, वे पूछनी ही रहती है किमी प्रकार सत्ताधारी हो। "यदि जीवन भ्रमके सिवा और कुछ भी नहीं, तो यदि जल स्वयं कुछ भी होता, तो उसका मरीरिका उसमें भ्रमकी प्रनीति क्यों ? नममें तर्क-विकणा क्यों ? बनकर समन्थल में प्राभास भी न होता, यदि कस्तूरी स्वयं उममें मनोंकी निश्चिति क्यों ?" कुछ भी न होती, तो उसका मुबास बनकर वनवृक्षों में धोका ज्ञाताके वास्तविक होने पर ही, उपमें भ्रमकी प्रतीति भी होना । यदि जीवन स्वयं कुछ भी होता, तो उस हो सकती है, उसमें नर्क-वितर्कणा हो सकती है, उसमें का पहष्ट चतना बनकर दृश्य लोकमें मम भी न होता। मनोंकी निश्चिति हो सकती है। असायका अर्थ सर्वथा शून्य नहीं है, सर्वथा प्रभाव जब ज्ञाता स्वयं भ्रम है, वक्ता स्वयं भ्रम है, नो उम नहीं है । चूकि पर्वथा शून्य तो कोई चीज नहीं, म उसकी की भ्रमधारणा भ्रमसे बेहतर कैसे हो सकती है, उसका कोई संज्ञा है, न उसकी कोई संख्या है, न उसका कोई भ्रमवाद भ्रमसे बेहतर कैसे हो सकता है ?" लक्षण है, न उसका कोई प्रयोजन है । असायका अर्थ हैइस प्रकार जीवनको भ्रम माननेमे, जीवन तो भ्रमसिद्ध मापेक्षिक शून्य वस्तु, मापेक्षिक प्रभावरूप वस्तु, प्रधान नहीं होता, परन्तु भ्रमवाद ज़रूर भ्रम सिद्ध होजाता है। वह वस्तु जो कुछ है तो जरूर, परन्तु वह उस जगह जीवनको भ्रम कहना, मानो भ्रमक अर्थम अनभिज्ञता मौजूद नहीं, उस समय मोमूद नहीं, उस तरह मौजूद नहीं प्रकट करना है। भला भ्रमकारके बिना भ्रम कहां ? दमरी जिस जगह, जिस समय, जिप तरह उसका पाभास होरहा है। मत्ताके बिना भ्रम कहां ? भ्रम-उत्पत्तिक लिये कममं कम दो भान्तिका अर्थ सर्वशून्यका ज्ञान नहीं, सर्व प्रभावका ममान भामनेवाली, परन्तु वास्तव में विभिन्न चीज्ञांकी भाव- ज्ञान नहीं। चूंकि मशून्य का मर्ष प्रभाव तो कोई वस्त श्यकता है । सत्ताक सर्वथा अभावमें, वा एक ही ससा ही नहीं, उसका ज्ञान केसा ? भान्तिका अर्थ अवस्तुका सद्भावमें भ्रमकी व्याख्या ही नहीं बनती। यदि इन्द्रियोंमे जान नहीं, बल्कि वस्तुका अनदज्ञान है। अर्थात परमान दीखमेवाली, बुद्धिस सूमनेवाली बाहरी सत्ताक अतिरिक्त जो वस्तुको उसके अपने ग्य, अपने क्षेत्र अपने का काल-क्षेत्र-परिमित सत्ताके अतिरिक्त और कोई मत्तानी अपने भाव में न देखकर उसे अन्य दम्य अन्यत्र अन्य नहीं है, तो उससे विलक्षण काल-क्षेत्र-अविछिन भीतरी मत्ता काल, अन्य भावमें देखना है। की प्रतीति कैसे हो जाती है ? सांपमें रम्मी और रस्मीमें मांपकी मास्तिका यह अर्थ नहीं कि माप कोई चीज़ सांपकी प्राप्ति इसी लिये सम्भव है कि लोकमें माप मोर नहीं-बस्किापकी भान्तिका यह अर्थ कि सांप रस्सी सरीखी दो समान भासनेवाली परन्तु विभिन्न वस्तुएँ वस्तु तो जरूर है, परन्तु वह उस स्थान, उम काल, उम मौजूद हैं। यदि लोको सांप ही सांप होता, अथवा रस्सी चीज़में मौजा मही. जहां उसका आभास हो रहा है। ही रस्सी होती, तो एक दूसरेकी प्रान्तिका होना मितान्न इस प्रकार भान्तिशून्यका प्रमाण नहीं, ससाका प्रमाण
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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