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अनेकान्त
[वर्ष
है। एक सत्ताका प्रमाण नहीं, दो सत्ताका प्रमाण है। एक बरामें ज्ञान कहाँ ? ये सब प्रज्ञानके ही नाम हैं। उस सत्ताका जिसमें कि भान्ति हो रही है. दूसरी उस जब किसी चीज़का मूल तत्व मालूम नहीं होता, उसका ससाका, जिसकी कि भान्ति हो रही है।
पूर्वापर सम्बन्ध मालूम नहीं होता, उसका शील-स्वभाव इस तर जीवनकी भान्ति जीवन-तत्वकी निषेधक मालूम नहीं होता, उसका कार्यक्रम मालूम नहीं होता, तो नहीं, जीवनतरवकी पोषक है। जीवनकी भान्ति स्वयं इस उस चीज़ को एक अलग थलग घटना (Isolated fact) बातका प्रमाण है, कि जीवनतस्व कुछ वस्तु जरूर है, इतना मानकर इत्तिफाकिया कह दिया जाता है। उसे प्राकाशवेल ही नहीं, वह इस बातका भी प्रमाण है कि जीवनतरव श्य की तरह बिना सिर-वैरकी सत्ता मानकर यादा कह दिया तस्वसे कोई विजण तस है, काल-क्षेत्र-परिमित तथ्यसे जाता है। वास्तव में वह चीज़ इतिकालिया घटना नहीं, कोई वितरण तथ्य है, विभिनतामय चीजोंसे कोई विलक्षण बिना सिर-पैरकी सत्ता नहीं, उसका मूल पूर्व में दवा हुमा चीज़ है।
है, अनादिमें डूबा हुआ है, और उसका सिर भविष्य में ___ जीवन भूम नहीं, जीवन शून्य नहीं, यह वास्तविक छिपा हुआ है, अनन्तमें छुपा हुआ है। चीज़ है, यह बाहरी सत्तापे भी अधिक सच्ची चीज़ है। जो बादल भाकाशमें घूम रहा है, क्या वह एक पह बाहरी चीज़ोंको दिखाने वाली, बताने वाली, सुझाने प्राकस्मिक घटना है ? नहीं, उसका मूल जनमें डूबा हुमा वाजी चीज है। इसके बिना बाहरी दुनियां कहाँ ? सचाई है, उसका सिर सागरमें छुपा हुना है, और इस जल और जौरभुटाई कहाँ ? निश्चिति और भान्ति कहाँ ? यह सचाई सागरमें एक तान्ता बंधा हुआ है, जिसका कभी विच्छेद की सचाई है। यह सदा जगने वाली ज्योति है। यह स्पष्ट नहीं। यह जल हमार रंगरूपोंमेंसे गुजरे, हजार जगह घूमे से स्पष्ट है, प्रग्येचसे प्रत्यक्ष है, पाससे पास है। यह फिरे, परन्तु इसका मूल तस्व सब जगह उसी तरह बना है। अपनेसे अपनी है। यह तो स्वयं 'पाप' है, 'भारमा' है, यह अविनाशी है । प्रादि-मन्त-रहित है।
बालक जो इसके सिलसिलेको नहीं जानते. इसके (मा) यत्रछाबाद-(Theory of chance)
मूलतत्वको नहीं जानते, वे इस बादलको एक पाकस्मिक इस प्रकारकी सकसे हार कर कुछ विचारक निश्चय घटना कहते हैं। परन्तु यह प्राकस्मिक घटना नहीं। यह करते हैं कि जीवनतत्त्व जो इन्द्रिय और बुद्धिसे अज्ञात है, तो अंजीरकी एक कही है। यह तो चमका एक फेर है। बा असत्य तो नहीं है, भम तो नहीं है, शून्य तो नहीं है, यही हाल जीवनतस्वका है, जीवनके एक अनुभवको वह कुछ है तो जरूर, परन्तु वह यों ही एक प्राकस्मिक लेकर, उन्हें पृथक र सममकर जीवन में यहच्छाकी कल्पना की पटना है, एक इत्तिफाकिया चीज़ है, एक बिना सिर-पैरकी जाती है, परन्तु वह अनुभव प्रमग-थलग चीजें नहीं। बस्तु है, जो यों ही भाती है, यों ही चली जाती है । वे जीवमें हजार विज्ञान जर्गे, हजार तर्क उठे, हजार वेदनाएँ इस प्रकारका निश्चयकर अपने प्रज्ञानको शान्त कर लेते हैं, पैदा हो, हजार काममाएं उदय हो; परन्तु वह बिखरी हुई इसे एक रिरिचत सिद्धान्त मान लेते हैं।
चीजें नहीं, वे बिना सिर-पैरकी चीजें नहीं। वे सब एक सूत्र में परन्तु तथा वहां पहुंचकर भी शान्त नहीं होती। बंधे हुए हैं, एक 'मह' में समाये हुए हैं। वे सब 'अहं' पा बराबर प्रपती राती है--इत्तिफाक्रमें निरिति कहो, सागरकी उठने और बैठने वाली बहरे हैं, वे सब 'मह'