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किरण ६-७]
जीवनकी पहेली
स्म उगने और जाने वाली शाखायें हैं। 'मह' इन हुआ समझने लगते हैं। परन्तु शंकायें यहां पहुंचकर भी म्सबमें प्रोत-प्रोत है। 'मह' इन सबमें बहुत होते हुए भी खतम नहीं होती। ये बराबर पकती रहती हैएक है। विभिन्न होते हुए भी अद्वितीय है, विभक्त होते यदि जीवन सच है, तो पा शेष स! 'सत्य' हुए भी भविभक्त है. अनित्य होते हुए भी नित्य . इसका और 'मशेय' दोनों परस्पर विरोधी भी हैं. एक दूसरेका कभी माश नहीं होता. फिर जीवन पाकस्मिक घटना कैसे विशेषण नहीं हो सकतीं। एक दूसरे पास नहीं कर हो सकती है?
सकतीं। इस 'अहं' को हजार हालतोंमेम गुजारें, हजार जगह विना शेय ए, सम्यकी प्रतीति नहीं बनती, सत्यकी घुमाये किरायेहजार रंग रूपों में रक्खें, हजार भूलभुलय्यां धारणा नहीं बनती, फिर विना शेष हुए जीपी प्रतीति मे डालें, हजार नाम रवावे, परन्तु इस 'मह' का कहीं कैम ? जीवनकी धारणा रेस? विच्छेद नहीं, वह हस्तम उसी तरह बना है, जन्मस मरण अपनी मूतनावश, अपनी प्रज्ञाननावश, किसी वस्तुका नक, बचपन बुदापे तक वही एक 'मह' जारी है। फिर प्रजात (unknown) डोमा एकपाती. परंतु उसकास्स. यह जीवन प्राकस्मिक घटग कैसे हो सकती है? भावतः प्रज्ञेय (unknow.ible) होना दूसरी बात है।
जो अज्ञानी जीवनके इस 'मम' तत्वको नहीं जानते. जो वस्तु अज्ञानतावश अज्ञानीबहमहामता दूर होने इसके महंतत्वको नहीं जानते वे ही पृथक पृथक अनुभवोंके पर कल जरूर जानी जा सकती है, परन्तु जो वस्तु प्रशंपले. आधार पर, भित्र भित्र हालनोंके आधार पर जीवनको वह अज्ञानता दूर होने पर भी कभी नही जानी जा सकती। माकस्मिक घटना कहनेको तैयार होते हैं। परन्तु वास्तव में इसलिये जो अज्ञात शंय नही। जीवन पृथक पृथक अनुभव नहीं, भित्र भिन्न अवस्था
जो चीज जामी नहीं जा सकती, जिसकी प्रतीति ही नही, अनेक अनुभवों, अनेक अवस्थाओंका ममुख्य नहीं, नहा
की नहीं हो सकती, उसमें सम्यकी कल्पना कैसे की जा सकती वह तो इन सबका एकीकार 'मह' है, ममकार 'आह' है। ? सत्यकी कल्पना उसी बस्तुमें हो सकी है, जो किसी ___(३) अज्ञेयवाद ( Theors' of Agnostic• प्रकार भी अनुभूतिमें भाम वानी हो, प्रतीनिमें भाने वाली Realism)
हो। उपयुक्न प्रकारकी नर्कणारी मुठभेड़ होने पर, कुछ
अर्थात जो प्रशंब है, वह प्रसन्य, जो झंय है वह
प्रधान जो विचारक निश्चय करते हैं, कि जीवन-नाव कोई आकस्मिक
मन्य है । प्रज्ञेयताकी व्याप्ति प्रमत्व माथी और शेयता घटना नहीं। वह एक मारभूत वस्तु है, परन्तु वा प्रज्ञेय
की म्याति सत्य साथी। इसलिये जो सम्बोय है। उमक सम्बन्ध में कुछ भी जाना और मा नहीं जा है, जीवन भी एक सत्य है, पर शेव जरूरी। पकता, कुछ भी कहा और मुना नहीं जा सकता।
यदि जीवन ज्ञेय नहीं, नो उममें 'मह' प्रीति क्यों ? वह अज्ञेय है, इसीलिये वह इन्द्रियोंस दिखाई नहीं उममें अपने को जामनेकी जिज्ञासा क्यों ? यह प्रतीति व्यर्थ देता, बुद्धिम समझ नहीं पाता । जो अजेय है, वह प्रज्ञात नहीं, पह जिज्ञासा म्यर्थ नहीं, यह बात भ्रमवादमें मिद्ध है। जो प्रज्ञान वह अज्ञेय है।
हो चुकी है। मनजीवन प्रशंय नहीं। (क्रमश:) इस प्रकार मत निश्चित कर. ये शंकाओंको सनम