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________________ ११० भनेकान्त [वर्ष ४ का नहीं, आराम करनेका होता है। हकीमां, डाक्टगं, वैद्योंको दिखलाता ! रुपया कर्ज ___ प्रभुत्वके मदने सिन्हा महोदयको आपसे बाहर लाता, कभी बर्तन-भांडे बेच कर ! सब कुछ करता कर दिया। सिंहकी तरह दहाड़ते हुए वह उठे, और वह, जा कर सकता ! इलाज में श्रुटि न आने देनाएक ऐसा भरपूर धक्का बेचारे रामदीनको मारा कि जरा भी। आह ! अभागा दौड़ती कारसं दम फुट दूर जा गिग। हाते-होते बहत्तर घन्टोंके अन्दर यानी तीन दिन कहाँ लगी ? कैसी लगी ? कितना खून निकला ? के अल्प समयमें ही उमन समीपस्थ शहरक मत्र मग या बचा ?-यह किस मालूम ? कौन देखने डाक्टरोंसे सन्तूकी तशवीश कराली । वाला था- वहाँ, उसका ? और जरूरत भी थी लेकिन .....? किम...? अन्तमें सहानुभूति रखने वाले पड़ोसियोंने राय 'कार' धूल उड़ाती हुई आगे निकल गई ! जैसे दी-'डाक्टर मिन्हा' को दिग्वानी ! वह अच्छे कुछ हुआ ही न हो। तजुर्बेकार हैं ! यश भी खूब है उनके हाथमें ! जिम x x x x पर हाथ डालते हैं, चंगा करके छोड़त है-उसे ! वही सन्तूको आगम कर सकते हैं ! वग्नः बीमारी उसका नाम था-मदीन ! जातिका 'मल्हा' ता बढ़ी हुई है ही, कौन जाने भगवान की क्या था! और यमुना-तट पर थी उसकी झोंपड़ी ! बेचाग मर्जी है ?' रागबोके बोझम दबा हुआ था। पर, था वह सुग्वी ! रामदीन तो पुत्र-प्रेममे पागल था-इस वक्त ! वह इस लिए कि एक पैमा भी उस पर कर्जका न उस अपने तन-बदनका भी खबर न थी ! जो कोई था ! ईमानदार था, और था बात वाला आदमी! कुछ कहना, वह वही कर गुजरता ! बिना कुछ वक्त-ब वक्त वह सौ-सौ रुपय बाजारमं ला सकता! विचार, साच । घरम काई था नहीं! जो कुछ था-धन-दौलत. वह ता चाहता था-'उसका 'सन्तू उठ खड़ा हा, बम।' इज्जत-बाबरू-जा कहा बस, 'सन्तू' था। डाक्टर साहबकी कारसे गिरकर और अपनी 'सन्तू' उसका बेटा था-समर्थ-बेटा! और प्राणोंस भी ज्यादह प्यारा ! बुढ़ापेका सहारा जो था ! घाटका कुछ भी स्त्रयाल न करके, वह भागा-शहरकी भार !: 'जब पहुंचा तो संन्ध्या हो चुकी थी, डाक्टर वंशका नाम चलाने वाला भी तो? साहब अपने पुत्र सहित सिनमा देखने जारहे थे !... ता अचानक वह पड़ गया-बीमार ! और ऐमा कि जानके लाले पड़ गए ! घरमें न उसकी माँ थी, न स्त्री ! माँ मर चुकी थी-बहुत पहले । और स्त्री 'दादा ! 'दादा !! पानी !!!' थी अपने पीहर ! जो कुछ तीमारदारी थी, बूढ़े ___एक भर्राई आवाजसे झोपड़ी प्रकम्पित हो उठी ! रामदीन के हाथ !... अन्धेरी रात थी। दस बजेका वक्त होगा। यमुनाकी बेचारा बड़ी मिहनत करता ! बदल-बदल कर उत्ताल-तरंगें कल-कल ध्वनिका सृजन कर रही थीं।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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