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अनेकान्त
[वर्ष ४ शहरों में और विशेषकर शिक्षित जातियों में तो फिर भी इनका लोगोंको बाल-विवाहसे होने वाली हानियोंको समझावे और प्रचार कम हो रहा है। किन्तु गांवों में और प्रशिक्षित वर्गमें उनके जमे हुए संस्कारोंको दूर करे । अभी तक बाल-विवाहका बोरदोरा ज्योंका त्यों है। उसमें मैं उन माता-पिताओंकी अक्लमन्दी और होशियारीकी अभी तक कोई कमी नहीं दिखखाई देती। कहीं-कहीं तो कितनी अधिक तारीफ़ (?) कहें, जो अपनी प्रबोध बालिकाका बाज-विवाहके अत्यन्त दयद्रावक और पाश्चर्य पैदा करने
छुटपन में ही ब्याह कर आप अपनी जिम्मेवारीसे बरी हो जाते वाले श्य देखने को मिलते हैं। पाठक पढ़कर हैरान होंगे कि है और उस गरीब कन्याको विवाहकी भयंकर उलझनमें हमारे देशमें लाखों विधवायें तो ऐसी हैं जिनकी उन स पटक देते हैं तथा अपने बालू रेनमें खेलने वाले सरल हृदय वर्षमे भी कम है। सैंकड़ों विधवायें ऐसी हैं जिनकी उम्र पांच के लिये अपने घरके मांगनमें स्वछन्द वृत्तिसे खेलने-कूदने वर्षसे भी कम है। कुछ जातियां और वर्ग ऐसे भी हैं जिनमें वाली बालिकाको दुनिया भरकी लाज और शर्मके रूपमें ला एक एक वर्ष और दो-दो तीन-तीन वर्षके दुधमुहे बच्चे- छोड़ते हैं तथा जल्द ही दो सुकुमार-हदयोंके बिगशक और बधियोंकी शादियां ( ? ) (अफसोस ! मुझे तो ऐसी शादियों- बेढंगे प्रतिबन्धके फलस्वरूप पौत्रका मुंह देखनेकी विषभरी को शादी कहते हुए भी लज्जा मालूम होती है) करदी जाती पाशा लगाये रहते हैं। मैं नहीं सोच सकती कि जो बालकहैं। इन्हें हम देशको व समाजको गहरे कुएमें धक्का देकर बालिकाएँ विवाहके अर्थको कतई नहीं समझते और विवाहढकेल देने वाली कुप्रथाओं के अतिरिक्त और कुछ कहनेका की जुम्मेवारीको संभालनेके लिये रंचमात्र भी सामर्थ्य नहीं साहस करेंगे तो वह हमारा दुस्माहम ही होगा। और तो रख सकते, उनके गलेमें विवाहका डरावना ढोल डालकर और हमारे समाजमें ऐसे उदाहरण भी पाप देखते और उनके माता-पिता उनसे किस पूर्व जन्मकी दुश्मनी निकालते सुनने होंगे कि आज दो माताओंके बिस्कुल नवजात शिशुओं हैं। याद रखिये, ऐसे माता-पिता दरअसल अपने मातृत्वके का गोद ही गोद में बड़ी धूमधामके साथ विवाह हो गया कर्तग्यपर कोर कुठाराघात करते हैं और उनको अपने इस
और उसमें बड़ी शानदार परात सजकर आई । ऐसा मालूम कर्तग्यघातका अवश्य ही कभी न कभी जवाब देना पड़ेगा। होता था कि एक सशब रौना सैकड़ों बांके सिपाहियोंकी उनको समझ लेना चाहिये कि अपनी सन्तानको बचपनमें ही संख्यामें किसी देशकी राज्यलक्ष्मीको लूटने भाई हो। (शायद विवाहका घुन लगाकर वे उसका धुला-धुलाकर सर्वनाश यह दो प्रबोध-समय बालक-बालिकाओंके स्वर्णमय जीवन करना चाहते हैं। बाल-विवाह समाजके लिये एक प्राणअस्मीको लूटने चली थी) विवाहमें गई ठाठकी जीमणवार नाशक जहर है इसमें सोचने और तर्क करनेकी कोई गुजाहुई और जुलूसीम प्रातिशबाजीकी खूब ही थम रही। शनहीं है। जो इसमें भी तक करनेका दुस्साहस करे तो
ऐसी अवस्थामें यह मानना ही पड़ेगा कि समाज में समझिये वह परले दरजेका या तो हठी है या मूर्ख है। बेहद बालविवाहका दौरदोरा अभी बहुत अधिक है और उसे नष्ट अफसोस और दुःखका विषय है कि शीप्रवोध जैसे कुछ करने के लिये जितना अधिक प्रयत्न किया आप भोता है। प्राचीन ग्रंथोंकी शरण लेकर कुछ सामयिक विद्वान् पण्डित इन विवाहोंकी तादादको कम करने और धीरे-धीरे समूल भी बालविवाहकी हिमायत कर अपने देश हमाजको रसानष्ट करने के लिये ऐसी सभा-समितियोंकी बहुत अधिक तलमें पहुँचानेसे नहीं हिचकते । महज़ वे कुछ अज्ञानी और
माले-मुहरों में मारठी सेठ साहकारों की मूठी शामदके बशमें पाकर ही