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________________ किरण ११-१२] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ६१६ सर्वार्थसिद्धि और गजवार्तिक इन दोनों का निर्वाह का उपयोग किया है। 'पूर्वत्र' शब्दस कैसे किया जासकता था ? सर्वार्थ- हरिभद्र सूरि श्वेताम्बर विद्वानों द्वाग ८ वी ९वीं सिद्धि उन्हें यों अभिप्रेत होमकती है कि-'न हि कृत शताब्दी के माने जाते हैं। और सिद्धसेनगणी उन मुपकारं साधवा विस्मरति' इस आर्ष नीतिवाक्यका से पीछेक विद्वान हैं-इनका ममय १० वी ११ वीं अनुसरण करने के लिये ही अकलंकदेवने भाष्य शब्द शमान्दाफ लगभग पड़ना है । अतः अकलंकदेवके के द्वारा सर्वार्थसिद्धिकी श्रादरम्मृति जाहिर की हो बहुन पीछक इन विद्वानों द्वाग तत्वार्थसूत्र और तो वह बात सम्भावत है। श्वेताम्बर भाष्य तो श्व० भाप्यकी एक कतना आदिकी मान्यतायें कुछ उनके सामने संभवित ही कहां था ? कारण कि वे भी कीमत नहीं रखतीं । हाँ यदि अकलंकसं पूर्व एक ता कर्नाटकके थे, जो सौगष्ट्र-कन्छ न दूर पड़ना किन्हीं अन्य श्वेताम्बर विद्वानोंने इस बातका मप्रहै, दसराताम्बरभाष्यका उनके पूर्ण रचा जाना भी मागा उल्लग्न किया हा कि 'श्वेताम्बर हा कि श्वेताम्बग्भाष्य और किसी पुष्टप्रमाणस निश्चित नहीं है। और जब नत्वार्थ मृत्रके का एक हैं-' और इमलियं भाष्यआजकलकं कोताम्बर धुरीण पंडिन पूज्यपादके कार भी अकलंकदेवके पहले के हैं-यह बान मामन ही माम्प्रदायिक बदरता बनलाते हैं तो फिर विचारणीय अवश्य होगी। अकलंकदेवकं सामन तो वह और भी ज्यादा प्रा मैंने मक्तिक मम्मति 'शब्दमाम्यादि बहुत गई होगी, ऐसी हालतमें याद अकलंकदेवके मामने शास्त्रों के बहन शास्त्रों म मिल सकते हैं तथा मिलते हैं। वह भाष्य होता तो उसके उद्धरण देकर उसकी यह बात जो लिखी थी वह दर्शनशास्त्रों में प्रायः एमी समीक्षा रूपसे खंडन अवश्य करते । परन्तु यह बात बात हानकी सम्भावना हामकती है, इमलिय लिग्बी गजवातिकम कहीं भी नज़र नहीं आती, अतः कैम थी परन्तु फिर भी जब आपका यह ही दुराग्रह है कहा जाय कि गजवातिककारके मामने श्वनाम्बर कि गनवार्निक में श्वेताम्बर भाष्यके शब्द है तो फिर भाष्य था ? रही परस्पर सहयोगी बान, वह पूज्य- आठवी नवी शताब्दीके पूर्ण होने वाले किन्हीं पादसे बहुत पूर्ण ही सम्भविन है जबकि सिद्धान्तोंम विद्वानों के स्पष्ट उल्लम्वों द्वाग यह मिद्ध कीजिये कि मतभेद न होकर दोनों सम्प्रदायोके पृथक हानकी अकलंक म पूर्ण इम श्वनाम्बर भाष्यका अस्तित्व था। प्रारम्भिक दशाके करीबका समय होगा ? माहित्यदृष्टिके विकाम द्वारा जो पं० सुग्यलालजीका __ऊपरक इम सब विवंचनपासं स्पष्ट है कि भाप्य- नव्यता और प्राचीनता विषयक विचार है वह कुछ विषयक प्रकरण (ग) भागम प्रा० माने जो कुछ भी मृल्य नहीं रखना, क्योंकिजा जितना विशेष विद्वान लिग्या है इसम पिष्टपेषगणक मिवाय और कुछ भी होगा वह उतनी ही प्रौढनाको लिए हुए. व्याकरणसार नहीं है। न्याय प्रादिकी विदनापूर्वक विशेषरूपस पदार्थका (१) स्वार्थभाष्य और राजवार्तिक में प्रतिपादन करेगा । जो भाष्य लिम्बना है वह भायनाके गुणांका भी अपनी टीकामें प्रतिपादन शब्दगत साम्य करता है । जिम टीकाके द्वारा बहुत जगह सूत्रोंके इस प्रकरण की जो बात है उसका उत्तर इसी सामान्य शब्दार्थका भी स्पष्टीकरण न होता ही उसे प्रकृत लेखमें पहले कई बार आ चुका है और नमका भाष्य लिम्वनामात्र गौरव सूचित करनेके मिवाय और है कि-अकलंकदवम पूर्व श्वनाम्बर भाष्य कुछ भी तथ्य नहीं रखना । और सूत्राथेकी ग्वंचानानी कं अस्तित्वका अभी तक ऐसा कोई भी प्रमागा सामने को जो बान बनलाई जानी है उसका प्रथम तो नहीं पाया जिसमे यह माबित हो सके कि अकलंक जवाब यह है कि वह खैचातानी नहीं; किन्तु भाष्य देवने अपने गजवार्तिकमें श्वेताम्बर भाष्यकं शब्दों की भाष्यना है। दुमरे, सूत्रोंको अपने अनुकूल ऊपरकं इम सब विमाने जो कुछ तनी ही प्रौढनाका लिए:
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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