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________________ ६२० अनेकान्त बनानेकी पद्धतिका अभाव है । अतः श्वेताम्बरभाष्य को प्राचीन सिद्ध करनेके लिये ऐसे पांच (कमजोर) हेतु दिये जाते हैं वे इसविषयकी सिद्धिमं बिलकुल ही निकम्मे है । हाँ, इस विषय मे कोई प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य होगा तो उसके माननेमें किसको इनकार हो सकता है। रही विद्वानोंमें परस्पर साहित्यके आदान-प्रदान की बात, उसमें किसीको कोई खास आपत्ति नहीं हो सकता । गुण-प्रहरणादिकी दृष्टिसं ऐसा हुआ करता करता है । परन्तु साहित्य के समय को ठीक निर्णीत न करके शब्द साम्यके आधारपर यों ही मनोऽनुकूल कल्पना कर लेना और उसके द्वारा पूर्ववर्ती साहित्य को उत्तरवर्ती तथा उत्तरवर्ती साहित्यको पूर्ववर्ती मान लेना भूलसे खाली नहीं है, और इसलिये उसे निरापद नहीं कह सकते । अच्छा होता यदि प्रो० सा० साहित्य के सादृश्यको अधिक महत्व न देकर कुछ पुष्ट एवं असंदिग्ध प्रमाणो द्वारा यह सिद्ध करके बतलातेfक श्वेताम्बर भाष्य उमास्वातिका स्वोपज्ञ है अथवा उसकी रचना राजवार्तिककं पहले हुई है। परन्तु वे ऐसा करने में बिल्कुल हा असमर्थ रहे हैं और इसलिये सदृशता के आधारपर उनका वैसा करनेका प्रयत्न करना बिना बुनियादकी दीवार उठाने के समान है । [ वर्ष ४ भी सम्मति तर्कका उल्लेख श्राता है, इसमें अनौचित्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परंपरा में सम्मतितर्ककं कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर नहीं माना है । दूसरे, वे कदाचित् श्वेताम्बर ही समझे जाँय और उनका उल्लेख दिगम्बरोंने किया है तो उन्होंने उसके द्वारा गुणग्राहकताका परिचय ही दिया है। ऐसे उल्लेख या तो उन प्रन्थकर्ताओंके स्पष्ट नामोल्लेखपूर्वक आते हैं अथवा 'उक्तं च अन्यत्र' आदि संकेत को लिये हुए होते हैं । परन्तु शंका साथ लिये हुए समाधानकी इच्छा से किसी अन्य संप्रदायकी बातकी सिद्धिकं विषय में ता कही भी कोई उल्लेख देखने में नहीं आये। यदि इस ढाँचेके लेख कही देखने में नहीं आये हों तो उनको सूचित करना चाहिये । राजवा र्तिककारने भाष्य के स्थानपर 'तत्वार्थाधिगम भाष्य' तकता लिखा नहीं - तथा राजवार्ति में 'यद्भाष्यं बहु कृत्वः षड्द्रव्याणि इत्युक्त" इसके स्थानपर 'सर्व पट्कं षड् द्रव्यावरोधात - यद्वाष्ये बहु कृत्वः पड् द्रव्याणि इत्युक्त" ऐसी भी कोई वाक्यरचना की नहीं, तो फिर कैसे समझा जाय कि राजवार्तिक में श्वताम्बरभाष्यका संकेत है ? ऐसी हालत में प्रा० सा० ने कुछ शब्दगत साम्यकां लेकर श्वे० भाष्यको गजवार्तिक पूर्ववर्ती सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया है उसमें भी कुछ सार नहीं है । और इस तरह आप का साग ही उत्तर लेख निःसार है । श्री ऐ० प० दि० जैन सरस्वतीभवन, बंबई यह ठीक है कि सम्मतितर्कपर सुमति नामक दिगम्बराचार्यकी वृशि लिखी गई है और धवलामें
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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