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अनेकान्त
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में सौभाग्यविजयजीन अपनी अपनी तीर्थमाला'" में किया है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े ही महत्त्वका है ।
१५वीं शताब्दी के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय ग्वालियर में दिगम्बर जैन सम्प्रदायके अनुयायियों का भी निवास था। ग्वालियर के समीप ही सोनागिरि नामका एक प्राचीन दिगम्बर जैन तीर्थ है । वहाँ भट्टारकोंकी जो गद्दा है वह ग्वालियर की परम्पराकी बताई जाती है ।
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ग्वालियर के एक भट्टारकने वि० सं० १५२१ में पउमचरिय १६ लिम्बवाया था, जा वर्तमानमं- पूना राजकीय प्रन्थसंग्रह मे सुरक्षित है ।
भानुचन्द्र चरित्र में यह उल्लेख मिलता है कि“ग्वालियर के राजाने एकलाब जिनबिम्ब बनवाये जो मौजूद हैं।” यह कथन ऐतिहासिक लोग शायद ही
१३ शील विजयजी इस प्रकार लिखते है
" बावन गज प्रतिमा दीपती, गढ़ गुश्रालेर शोभति " सौभाग्यविजयजी निम्न प्रकार सूचित करते हैं"गदम्बालेर बावनगज प्रतिमा, वेद ॠषभ रंगरोली जी” "इनमें से कतिपय लेख तो बाबू राजेन्द्रलाल मित्रने प्रका शित कराये थे, जिन्हें फिर स्वर्गीय बाबू पूर्णचंदजी नाहर ने भी श्रग्ने लेग्बरं ग्रहमं प्रकाशित किया है । लेखांम ग्वालियर के राजा डुंगरसिंह जीका नाम आता है। ग्वालि यर के किले का पूरापरिचय 'प्राचीन जैन स्मारक' में भी दिया है। यह तीर्थ दतिया से करीब पाँच मील है। इसे 'श्रमणगिरि' भी कहते है, ऐसा प्राकृत निर्वाणकोंडसे ज्ञात होता है । यहाँ से श्री नंग और नगकुमारादि मोक्ष गए हैं । " पुष्पिका इस प्रकार है - "मंवत् १५२१ वर्षे ज्येष्ठमास सुादे १० बुधवारे | श्रीगोपाचल दुर्गेश्रीमूमसंघे बलात्कारगणेश (म)रश्व (स्व) तीगच्छे। श्रीनांदसंधे । भट्टारक श्रीकु दकु दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीप्रभाचंद्रदेवा । तत्यट्टे शुभचन्द्र देवा । तत्पट्टे श्रीजिनचन्द्रदेवा । तत्र श्रीपद्मनन्दिशिष्य श्रीमदनकीर्तिदेवा । तत्सि (शि) ध्य श्रीनेत्रानन्दिदेवा । तनिमित्त पंडेलवालत्य लुहाडियागोत्रे मं० गही धामा तत्भार्या धनश्री तयोः पुत्र इल्हा बीजा नत्र सं० ईल्हा भार्या साध्वी सपीरी तयोः पुत्राः सं ० वोहिथ भरहा। सं. ईस्व (श्व) र पुत्री सूवा ॥ एतैर्निजन्यान्या (शाना )वरणीय कर्मचार्यार्थ इदं पुस्तकं लिखापितं ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । श्रन |
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स्वीकृत करेंगे. क्योंकि न वहाँ इतने बिम्ब मिलते हैं और न कोई तत्कालीन लिखित प्रमाण ही उपलब्ध है। क्या ही अच्छा होता यदि उक्त प्रन्थकारने राजाके नामका निर्देश भी साथ में किया होता। फिर भी अन्यान्य साधनोंपर से ऐसा ज्ञात होता है कि यह राजा दूसरे कोई न होकर डुंगरसिंहजी ही होने चाहियें। क्योंकि इन्हींके राज्यकाल में कलापूर्ण सुन्दर जैन मूर्तियाँ बनवानेका पुण्य कार्य आरम्भ हुआ था और वह आप हीके पुत्र करणीसिंहजी के समय मैं पूर्णता को प्राप्त हुआ था । करणीसिंहके समय में ग्वालियरका राज्य मालवाकी बराबरका था। ग्वालि ari नरेश पहले से ही विशेष कलाप्रेमी रहे हैं, जिनमें मानसिंहका स्थान सर्वोत्कृष्ट है । कवियों के लिये भी यह नगर मशहूर है ।
प्राचीन गुजरात जैनसाहित्य में ग्वालियरका वर्णन विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। मुनि कल्यामागरने अपनी 'पार्श्वनाथतीर्थमाला' में ग्वालियर में भी पार्श्वनाथ के एक मन्दिरका उल्लेख किया है। मालूम नहीं वह मन्दिर इस समय मौजूद है या नहीं ।
ग्वालियर पुराननकालसे ही संगीतकलाका भी केन्द्र रहा है, बड़े-बड़े गवैये यहांपर हो गए हैं। संगीत - साहित्यका भी यहां काफी निर्माण हुआ है । अबुल फजलन श्राइन इ-अकबरी में ३६ गायकों का वर्णन किया है, उनमें से १५ ने ग्वालियर में ही शिक्षा प्राप्त की थी, जिनमें तानसेन सर्वोपरि थे । इन्होंने एक संगीतका ग्रन्थ भी बनाया है, जिससे संगीतप्रेमी वर्गका बहुत सहायता मिली है। आज भी ग्वालियर का संगीतविषयमें वही स्थान है जो पूर्व था। यहांक भैया साहब प्रसिद्ध गायकोंमेंस थे, और भी अच्छे अच्छे गायक यहां पर मौजूद हैं।
सं० १९५२ में सिवनी के बड़े बाबाकं मंदिरकी प्रतिष्ठा के लिये भी ग्वालियर के भट्टारक पधारे थे ।
इस प्रकार ग्वालियर के विषयमें जैनसाहित्य से मुझे जितनं उल्लेख अभीतक उपलब्ध हुए हैं उन सब का संग्रह यहाँ पर संक्षेप में कर दिया गया । ऐसा करने में यदि कहीं कुछ स्खलना हुई हो तो विज्ञ पाठक मुझे उससे सूचित करने की कृपा करें ।