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________________ विषय-सूची पृष्ठ ४२५ १ - अम्महानद-तीर्थ – [ परमानन्द जैन शास्त्री २- प्रतिमालेख संग्रह, उसका महत्व [मुनि श्रीकांतिसागर ४२७ ३-विश्वसंस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान [डॉ० कालीदासनाग, ४३१ ४--वालियर के किले की जैनमूर्तियां - [श्रीकृष्णानंद गुप्त ४३४ ५-अमोघप्राशा(कविता) - [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' ४३६ ६ सयु० उत्तरलेखकी निःसारता [पं० रामप्रसाद शास्त्री ४३७ ७-संशोधन ४४७ ८- जिनदर्शनस्तोत्र (कविता) - [पं० हीरालाल पांडे १ - तपोभूमि (कहानी) - [श्री 'भगवत' जैन १६ - महाकवि पुष्पदन्त - [श्री पं० नाथूराम प्रेमी ११ - रामी (कहानी) - [श्री 'भगवत्' जैन १२ - नेमिनिर्वाण काव्य-परिचय - [पं० पखालाल जैन ४६६ १३ - उ०पद्मसुन्दर और उनके ग्रंथ [श्री अगरचंद नाहटा ४७० १४ - जैनमंदिर सेठकू चा देहलीके ४० लिखितग्रंथोंकी सूची ४७२ ४४८ ४४६ ४२५ ४६२ वीरसेवामन्दिरके सच्चे सहायक श्रीमान् माननीय बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता मेरी तुच्छ सेवाश्रां के प्रति बड़े ही श्रादर-सत्कार के भावको लिये हुए हैं, यह बात 'अनेकान्त' के उन पाठकोंसे छिपी नहीं है जिन्होने श्रापके विशुद्ध हृदयोद्गारों को लिये हुए वह पत्र पढ़ा है जो द्वितीय वर्षकी १२ वीं किरण के टाइटिल पेज पर मुद्रित हुआ है। यही कारण है कि आप मेरी अन्तिम कृतिरूप इस वीर सेवामन्दिरको बड़े प्रेमकी दृष्टि से देखते हैं, उसके साथ पूर्ण सहानुभूति रखते हैं और उसकी सहायता करने-कराने का कोई भी अवसर व्यर्थ नहीं जाने देते। इस संस्थाको स्थापित करनेके कोई एक साल बाद जब में कलकत्ता गया तो आपने साहू शान्तिप्रसादजी जैन रईस नजीबाबाद से मुझे तीन हजार ३०००) रु० की महायताका 'वचन 'जेनलक्षणावली' श्रादिकी तय्यारीके लिये दिलाया और मेरे बिना कुछ कहे ही चलते समय चुपकेसे ३००) रु० श्रौषमालय तथा फर्नीचर के लिये भेंट किये । श्राप वीर सेवामन्दिरको एक बहुत बड़ी चिरस्मरणीय सहायता करना चाहते थे, परंतु योग योग हाथसे निकल गया, जिसका श्रापको बहुत खेद हुया । बादको आापने ५००) रु० अपने भतीजे चि० चिरंजीलालके आरोग्यलाभकी खुशी में भेजे, १००) अपने मित्र बाबू रतनलालजी झाँझरीसे लेकर भेजे, २००) रु० अपने छोटे भाई बाबू नन्दलाल से और २०० ) रु० अपनी पूज्य माताजीसे दिलाये । अपनी धर्मपत्नी के स्वर्गारोहण से पूर्व किये गये दानमेंसे पाँच हजार ५०००/ रु० की बड़ी रकम इस संस्था के लिये निकाली । 'श्रनेकान्त' पत्रके लिये स्वयं १२५) रु० भेजे, १००) रु० सेठ बैजनाथजी सगवगीमे दिलाये, और कलकत्तेके कितने ही सज्जनोंको स्वयं पत्र लिखकर तथा साथमें नमूनेकी कापियाँ भेजकर उन्हें अनेकान्तका ग्राहक बनाया। इसके सिवाय, गत मार्च मासमें आपके ज्येष्ठ भ्राता बाबू फूलचन्दजीका स्वर्गवास हो गया था, उस अवसर पर सात हजार रुपयेका जो दान निकाला गया था उसका स्वयं बटवारा करते हुए हाल में आपने एकहजार १०००/६० बीरसेवामन्दिरको प्रदान किये हैं। ऐसे सच्चे सहायक एवं उपकारीका आभार किन शब्दों में प्रकट किया जाय, यह मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ता ! मेरा हृदय ही सर्वतोaree उसका ठीक अनुभव करता हुआ आपके प्रति झुका हुआ है— शब्द उसके लिये पर्याप्त नहीं हैं, खास कर ऐमी हालत में जब कि आभार प्रकटीकरण से आपको खुशी नहीं होती और अपने नाम तकसे आप दूर रहना चाहते हैं। मैंने भाई . फूलचंदजीका चित्र प्रकाशनार्थ भेजनेको लिखा था, इसके उत्तर में श्राप लिखते हैं- "मुख्तार साहब, आप जानते हैं हम लोग नाम से सदा दूर रहते हैं। चित्र तो उनका छपना चाहिये जो दान करें। हम लोग तो मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त(अधूरा ही) - करते हैं । फिर भी ज़रा २ सी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं तो दम्भ अवश्य है। अस्तु, क्षमा करें ।” कितने ऊँचे, उदार एवं विशाल हृदयसे निकले हुए ये वाक्य हैं, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सचमुच बाबू छोटेलालजी जैनसमाजकी एक बहुत बड़ी विभूति हैं । मेरी तो शुद्धान्तःकरणसे यही भावना है कि श्राप यथेष्ट स्वास्थ्यलाभके साथ चिरकाल तक जीवित रहें, और अपने जीवनकाल में ही वीरसेवामन्दिरको खूब फलता-फूलता तथा अपने सेना - मिशन में भले प्रकार सफल होता हुआ देखकर पूर्ण प्रसन्नता प्राम करें । - जुगल किशोर
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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