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अनेकान्त
[वर्ष ४
गुम्मट और गोमट; परन्तु शब्द निःसंदेह एक ही है। मम्बंध बेल्गालकी मृतिके साथ उसी प्रकार है जिस शिलालेखोंसे कुछ बिगड़ी हुई शकलें भी मिलती हैं। प्रकार कि प्राकृत ग्रंथके साथ है । यदि हम गोम्मटजैसे गोमटेश्वर, गुम्मनाथस्वामि, और यह मार' की कुछ अन्तिम गाथाओंको ध्यानपूर्वक लेखकोंकी ग़लतियाँ मानी जा सकती है। मगर ग्रंथ पढ़े तो एक बात निर्विवाद सिद्ध है कि चामुण्डराय का नाम मब जगह 'गोम्मटसार' है।
जो 'वीरमार्तण्ड' की उपाधिके धारक थे, उनका ___ अनेक कारणाम गोम्मट' शब्द दोनों स्थानां दूसरा नाम 'गोम्मट' था और वे 'गोम्मटराय' भी पर एक ही जैसी व्याख्याका पात्र है । बेल्गाल' में कहे जाते थे । नमिचंद्रने ओजपूर्ण शब्दोंमें उनकी मूर्तिकी यथाविधि प्रतिष्ठा करानक जिम्मंदार चाम- विजयके लिये भावना की है । इन गाथाओं और ण्डगय हैं, जो कि गंगगजा गजमल (ई० मन ९७४. उनकी टीकाकी जांच में यह जाहिर होता है कि ९८४)का मंत्री और सेनापति था और दीकाका- 'गाम्मट' शब्द अथकी कुछ हल्कीसी भिन्न छायाश्राम द्वारा उल्लेखित कथाकं अनुमार नमिचंद्रन इसी बार बार इस्तमाल किया गया है। मुझे मालूम होता है चामुण्डगयकं लिय धवला जैस प्राचीन ग्रंथोपरस कि शब्दका यह बार बार इस्तेमाल गोम्मट' वा विषयोंका संग्रह करके गाम्मटमार' संकलित किया चामुण्डगयकी प्रशसा करनका दूमग ढंग है। जिनथा । यद्यपि निश्चित तिथियाँ प्राप्य नहीं है, फिर भी संनन भी वीरसेनकी इसी प्रकार प्रशंसा की है। इतना सुनिश्चित है कि नमिचंद्र और चामण्डराय इम ममकालीन साक्षीक अतिरिक्त ई०सन् ११८०कं एक समकालान थे और मूर्तिका स्थापन और गोम्मटसार
शिलालम्वपरमे हम मालूम होता है कि चामुण्डराय का सकलन दाना समकालान घटनाएँ है, जोकि का दूसरा नाम 'गाम्मट' था। मुम ऐमा जान करीब करीब एक ही स्थानस सम्बन्ध रग्बती हैं ।
पड़ता है कि यह चामुण्डगयका घरेलू नाम था। इसलिये हम 'गाम्मट' का जा भी अर्थ लगायें वह
___ यदि इन बातोंको स्मृतिमें रखते हुए कि प्राचीन महान मूर्निके नामके साथमें और प्राकृत ग्रंथके नाम
जैनसाहित्यमे बाहुबलिका गोम्मटेश्वर नहीं कहा गया के साथमें भी संगत होना चाहिये।
है और यह शब्द केवल बल्गालकी मूर्निकी प्रतिष्ठा यह एक महत्त्वकी बात है कि चामुण्डगयका
११ जीवकाण्ड ७३३ और कर्मकाण्ड ६६५-७२ इन गाथाओं
को मैंने अपने लेग्व Material on the Inter८ E. C. II, नं० ३७७, ३५२ ।
pretation of the word gommata में जा E. C. II, भूमिका पृष्ठ १५ ।
Indian Historical Quarterly Vol.
XVI No.2 के Poussin Number का १० देखो अभयचन्द्र: केशववों ओर नेमिचन्द्रके प्रारंभिक अंग है. अालोचनाके साथ अंग्रेजीमं अनुवाद किया है।
कथन । केशववर्णाकी कन्नडी टीका अभी तक प्रकाशित १२ देखो, मेरा लेग्य जो ऊपरके फुटनोटमें नोट किया गया है; नहीं हुई। अभयचन्द्र और नेमिचन्द्रकी संस्कृत टीकाएँ षटखंडागम प्रथमभाग प्रो०हीरालाल जैन द्वारा संपादित, (जो केशववर्णांका बिल्कुल अनुकरण करती हैं) गाँधी- अमरावती १६३६, भूमिका पृष्ठ ३७, फुटनोट १, पद्य १७ हरिभाई-देवकरण-जैन-अन्यमाला, ४, कलकत्तामें प्रका- १३ देखो ( E. C. II) नं० २३८ पंक्ति १६ और शित हुई है।
अंग्रेजी संक्षेपका पृष्ठ ६८ भी।