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________________ बुन्देलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगढ़ [ लेखक-श्री कृष्णानन्द गुस] 000000 मारे पाठक देवगढ़के नामसे अवश्य आजसे लगभग १७ वर्ष पूर्वकी उस यात्राका TET परिचित होंगे। यह स्थान अपने प्राचीन पूरा स्मरण मुझे नहीं । देवगढ़कं प्राचीन जैन-मन्दिगें, ९ जैन मन्दिगें, विभिन्न समयकी लिपिमें वहां के प्राकृतिक दृश्यों, तथा अतीतके अन्य भग्नावDiyonero लिखे गये अनेक शिला-लेखों, तथा शेषोंको देख कर मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, मैं अन्य प्राचीन स्मारकोंके लिये काफी प्रसिद्ध है । गुप्त ठीक कह नहीं सकता। किन्तु मुझे इतना अवश्य कालका बना हुमा यहाँका विष्णु-मन्दिर तो भारतीय स्मरण है कि किले पर पहुँच कर हम लोगोंने वहांसे कलाकी एक खास चीज है। 'मधुकर' में उसका कई जब बेतवाका अपूर्व दृश्य देखा तो मंत्रमुग्धसं होकर बार उल्लेख हो चुका है। रह गये थे। तबसे हम कई बार देवगढ़ गये हैं, और देवगढ़ जानका सबसे पहला अवसर मुझे सन् जितनी बार वहाँ गये, एक नये प्रानन्दकी अनुभूति १९२३के लगभग प्राप्त हुमा । यह यात्रा मेरे लिए चिर- लेकर लौटे हैं.। भारतकी प्राचीन शिल्प-कलाके कुछ स्मरणीय रहेगी, क्योंकि जिस मंडलीकं साथ मैंने यह बड़े सुन्दर नमूने तो वहां मौजूद हैं ही, जिन्हें देग्व यात्रा की, उसमें आदरणीय वृन्दावनलालजो वर्मा, कर चित्त प्रमन्न हुए विना नहीं रहना; साथ ही देवकविवर श्रीमैथिलीशरणजी गुप्त और राय श्रीकृष्ण- गढ़का प्राकृतिक सौन्दर्य भी देखने योग्य है । विंध्य दास जैसे व्यक्ति सम्मिलित थे। एक तो देवगढ़ जैसे पर्वतकी श्रेणीको काट कर बेतवाने यहां कुछ बड़े प्रसिद्ध स्थानकी यात्रा, और फिर कवि और कला- सुन्दर दृश्य बनाये हैं। देवगढ़का प्राचीन दुर्ग जिस मर्मझोंका सत्संग। जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम पर्वत पर है, बेतवा ठीक उसके नीचे होकर बहती है। मिलते हैं। पहाइकी एक विकट पाटीमें होकर बहती हुई सहसा हम लोग रातको दो बजे झाँसीसे रवाना वह पश्चिमकी ओर मुदगई है। इससे दृश्य और होकर सुबह जाखलौन पहुँच गये थे । ललितपुरसे भी सुन्दर हो गया है। भागे जाखलौन एक छोटा-सा स्टेशन है। यहाँ कोई वर्तमान देवगढ़ बेतवा तट पर बसा हुआ एक मेल-ट्रेन खड़ी नहीं होती। इस लिए हमलोग रातकी छोटा-सा गाँव है । जनसंख्या लगभग दो सौके हांगी। पैसिंजरसे ही भाये थे। देवगढ़ जाखलौनसे पाठ उसमें जैनियों और सहनमों की संख्या ही अधिक है। मीलकी दूरी पर स्थित है । म्टेशन पर अक्सर सवारी गाँव निकट पहुँचने पर साधारण दर्शकको कोई के लिए बैलगादी मिल जाती है। ऐसा न होने पर विशेष आकर्षक वस्तु देखनेको नहीं मिलेगी । परन्तु निकटवर्ती प्रामसे उसका प्रबन्ध किया जा सकता है। जंगल में जगह-जगह प्राचीन मूर्तियों तथा पत्थरकी ललितपुरसे यह जगह सनीस मील दूर है। इमारतोंके ओ खंड पड़े मिलते हैं, वे भाज भी कल्प
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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