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प्रश्नोत्तर
[मैंने एक प्रश्न (ज्ञान-प्रज्ञान विषयक) श्री दरबारीलाल उतना भलाई मे भी हो सकता है। एक प्रादमी लाख रुपये जी सत्यनकनके पास भेजा था। उसका उन्होंने जो उत्तर का व्यापार करना है तो उसका नफा हजारोपर पहुंचता है। दिया सो तारीख १६-५-१६३६ई. के सत्यसन्देशमं प्रकट हो और घाटा भी हजारों पर पहुंचता है। परन्तु कोदो रुपये चुका है, फिर भी वह चर्चा मानस-शास्त्र-मम्बन्धी होनेसे का व्यापार करता है, वह हजारोका घाटा या मुनाफा नहीं उमे श्राज अनेकान्त-पाठकोंकी जानकारीके लिये नीचे प्रकट उठा सकता। परन्तु कोई यह नहीं चाहता कि:जारोंके किया जाता है। प्राथा है दूसरे विद्वान इस पर कुछ विशेष घाटेसे बचनेके लिये दो रूपयेका ही व्यापारी बना रहूँ। ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और होसके तो इस विषयपर कोई जैनशास्त्रोकी कुछ मान्यताएँ बद्दी सुन्दर है और वे नया प्रकाश डालकर अनुगृहीत करेंगे।-दौलतराम मित्र] पूर्ण मनोवैज्ञानिक है। उनके अनुसार एकेन्द्रिय जीव नरक (प्रश्न)
नहीं जासकता । परन्तु वह स्वर्ग, मोक्ष भी नहीं जासकता। "तिर्यञ्च-जीवोंको (मास) खाने वालोमें कुछ तो पाप परन्तु नरक न जाना पड़े, इसीलिये कोई एकेन्द्रिय होना पुण्यकी समझ रखने वाले और कुछ समझ नही रखने वाले पसन्द नहीं करता। इसी प्रकार नासमझ पापका अधिक मनुष्य है। इन दोनोंमे पापके अधिक भागी कौन होने चाहिये ? बच नहीं कर मकता ती पण्यका मी अधिक पन्ध नहीं कर समझदार या बेसमझदार ? यदि कहोगे कि समझदार, ती सकता: और मुक्ति मार्गको तो वह पा ही नहीं सकता। समझदारीको फिर कौन हासिल करेगा ? क्योकि पापसे इसलिये समझदारीको हेय और नासमझीको उपादेय नही छटकारा पाने के लिये ही तो समझदारी हासिल की जाती है। कह सकते। याद कहा कि बसमझदार, ता यह ता ठाक नहा, क्या- होशातभावका अर्थ समझदारी नहीं है, इसी प्रकार न कि उनम तो पाप-पुण्यको कल्पना ही नही है। उनका ता अशातभावका अर्थ नासमझी है। समझदार भी प्रशातभाव वैमी ही प्रवृत्ति है जैसी कि जलचर, थलचर, नभचर जीवों से पाप कर जाता है, और नाममझ भी ज्ञानमावसे पाप में हिसक-प्रवृत्ति पाई जाती है।"
करता है। अजानभावकी अपेक्षा ज्ञातभावमें कर्मबन्ध (उत्तर)
अधिक है । जान-झकर इरादापूर्वक पाप करनेमें कलेश "कर्मसिद्धान्तके जिस रूपको मानकर यह प्रश्न उठाया अधिक रहता है। नामसझी से प्रशानभावका नियत संबंध गया है, उसके अनुसार पुण्य-पारका साक्षात् सम्बन्ध ज्ञान- नहीं है। प्रशानसे नहीं किन्त कषायसेकषायोंकी जितनी तीव्रता जिन जीवोम पाप-पुण्यकी कल्पना ही नहीं है तो भी होगी, कर्मका बंध भी उतना ही अधिक होगा, परन्तु तीब अगर वे पाप करते हैं तो उन्हें पापबन्ध होता है, उसका कषायी होनेकी शक्ति समझदारीमें अधिक होती है। हां, फल भोगना पड़ता है। इसलिये नशाखोंमें उन्हें नरक. समका वे सदुपयोग भी कर सकते है, और दुरुपयोग भी कर मामी भी बताया है। अगर किसी समाजके मनुष्य झूठ सकते हैं। समझ-प्राणियोंमें उतनी शक्ति नहीं होती, इस बोलनेकी बुराई न समझते हो और खूब झूठ बोलते हो तो लिए वे उतना बन्ध नहीं कर सकते।
झूठ बोलनेसे जो हानि है वह उन्हें भोगना पड़ेगी। ऐसी ही परन्तु इसलिये समझदारी बुरी चीज न होगई; क्योंकि अवस्था कर्मबन्धकी भी है। असली बात यह है कि बन्ध समझदारी बुराई के लिये उत्तेजित नहीं करती । वह एक का सम्बन्ध शान-प्रशानसे नहीं, कषाय-अकषायसे है। ज्ञानशक्ति है उसका उपयोग जितना बुराई में हो सकता है, प्रशान उत्तमें परम्परासे कारण होते है।"